- वैदिक संहिताओं में ऋग्वेद के पश्चात् सामवेद का स्थान है। बृहद् देवता के अनुसार तो साम को जानने वाला व्यक्ति ही वेदों को जानता हे-
सामानि यो वेत्ति स वेद तत्वम्
तात्पर्य यह है कि यद्यपि ऋग्वेद भारतीय वाङ्मय का मूल ग्रंथ है और उसमें विभिन्न देवताओं के स्तुतिपरक मंत्र है तथापि उन मंत्रों की उचित सस्वर उच्चारण पद्धति सामवेद में ही प्राप्त है। अत: सामवेद के ज्ञान के बिना ऋग्वेद का ज्ञान अपूर्ण हे। प्रत्युत यह कहना अनुचित न होगा कि यह ज्ञान अपूर्ण ही नहीं, अपितु निरर्थक भी हो जाता है क्योंकि उन मंत्रों की सार्थकता उनके सस्वर गान में ही है। इसी कारण बृहदेवता की यह उक्ति पूर्णत: सत्य है कि साम को जानने वाला व्यक्ति ही वेदों का उचित अनुभव कर सकता है। गीता में कृष्ण की यह उक्ति
‘ वेदानां सामवेदोऽस्मि ‘
अर्थात् वेदों में मैं सामवेद हूं।
साम शब्द की व्युत्पत्तियाँ
- ‘साम’ शब्द की निम्नलिखित व्युत्पत्तियाँ दी गई हैं-
- स्यति नाशयति विघ्नमिति सामन्– अर्थात् जो विघ्नों का नाश करता है वही साम है।
- समयति सन्तोषयति देवान् अनेन इति- अर्थात् जो मंत्रों द्वारा देवताओं को संतुष्ट करता है।
- कुछ विद्वानों के अनुसार सामन् का अर्थ गान है। ऋग्वेद के मंत्र जब विशिष्ट गान पद्धति से गाए जाते हैं तो उनको साम कहा जाता है।
- कुछ विद्वानों के अनुसार साम का अर्थ है ‘सुन्दर सुखकर वचन’। संगीत विद्या को सर्वाधिक सुखकर या आनन्ददायक माना गया है। अतः साम का अर्थ भी संगीत अथवा गान है।
सामवेद का पुरोहित उद्गाता कहलाता है। इसका कार्य है सामवेद की संगीत परक वाणी के द्वारा देवताओं को प्रसन्न करना।
विद्वानों के अनुसार पहले सामवेद की एक सहस्र शाखा थी-
परंतु श्री सातवलेकर के अनुसार यह उचित प्रतीत नहीं होता। इसका अभिप्राय प्रायः यही है कि सामवेद के गायन की एक सहस्र पद्धतियाँ थी।
आजकल सामवेद की तीन शाखाएं उपलब्ध है- 1. कौथुम 2. जैमिनीय 3. राणायणीय। तीसरी शाखा महाराष्ट्र में प्रचलित है। जैमिनीय शाखा को तवल्कार शाखा भी कहते हैं। आजकल कौथुम शाखा सबसे अधिक प्रचलित है।
सामवेद भाग
- सामवेद के दो भाग हैं – पूर्वार्चिक और उत्तरार्चिक। दोनों भागों की मंत्र संख्या 1875 है। इनमें कुछ मंत्रों की पुनरावृत्ति हुई है। इस प्रकार के मंत्रों को पृथक् कर देने पर मौलिक मंत्रों की संख्या 1549 रह जाती है। इनमें से भी कुल 75 ऋचाओं को छोड़कर बाकी सब ऋचाएं ऋग्वेद के आठवें और नवें मंडल से ली गई है। कुछ ऋचाएं प्रथम और दशम मंडल से ली गई है।
सामवेद की प्रायः समस्त ऋचाएं ऋग्वेद से ही ली गई हैं। इसका कारण यह है कि सामवेद का संकलन उद्गाता नामक पुरोहित के लिए हुआ है। यह उद्गाता ऋग्वेद में संकलित विभिन्न देवताओं के स्तुतिपरक मंत्रों को ही विभिन्न स्वरों में गाता है। अत : मौलिक रूप से लें तो साम का आधार ऋक् ही हुआ। बृहदारण्यकोपनिषद् में तो साम और ऋक् को पति-पत्नी के रूप में बताया गया है। साम रूपी पति ऋक् रूपी पत्नी का सन्तानोत्पत्ति के लिए आह्वान करते हुए कहता है कि मैं आकाश हूं तुम पृथ्वी हो, हम दोनों मिलकर सन्तानोत्पत्ति करें-
सामाहमस्मि ऋक् त्वम् धौरहं पृथिवी त्वम् ।
ताविह सम्भवाय प्रजायाजनयावहै । ।
बृहदारण्यकोपनिषद्
सामवेद की ऋचाओं की रचना प्रायः गायत्री और जगती छंद में हुई है। इन दोनों ही छंदों की व्युत्पत्ति गानार्थक गै धातु से है। अत: यह स्पष्ट है कि सामवेद के अधिकांश मंत्र गेय और संगीतपरक ही है।
पूर्वार्चिक
- पूर्वार्चिक में 650 मंत्र 6 प्रपाठकों में विभक्त हैं। प्रथम प्रपाठक में अग्नि विषयक साम है। अत: इसे आग्नेय कांड कहा जाता है दूसरे से चतुर्थ प्रपाठक तक इंद्र की स्तुतियां है अतः इसे ऐन्द्र पर्व कहा जाता है। पंचम प्रपाठक में सोमपरक स्तुतियां है अत: यह पवमान पर्व कहलाता है। इस पर्व की सारी ऋचाएँ ऋग्वेद के नवम मंडल से ली गई हैं। छठा प्रपाठक आरण्यक पर्व के नाम से प्रसिद्ध है। पूर्वार्चिक में पहले पाँच प्रपाठकों की रचनाएं ग्राम गान है जबकि छठे प्रपाठक की रचनाएँ अरण्यगान हैं क्योंकि वे अरण्य में गाई जाती हैं।
उत्तरार्चिक
- उत्तरार्चिक में कुल मंत्रों की संख्या 1225 है। ये 400 गीतों में विभक्त हैं। प्रत्येक गीत में प्राय: 3-3 ऋचाएं हैं। कहीं – कहीं दो दो या चार चार ऋचाएं भी प्राप्त होती है। उत्तरार्चिक के दूसरे विभाजन के अनुसार ये नौ प्रपाठकों में विभक्त हैं। पहले पाँच प्रपाठकों में दो दो अध्याय हैं और अन्तिम शेष चार प्रपाठकों में तीन – तीन अध्याय हैं। कुल मिलाकर 22 अध्याय हैं। प्रत्येक अध्याय में कई – कई सूक्त हैं। सूक्तों की कुल संख्या 400 हैं जिनमें दो – दो या तीन – तीन के मंत्र समूह हैं।
उत्तरार्चिक का महत्त्व पूर्वार्चिक से कम है क्योंकि इसके अधिकांश मंत्र पूर्वार्चिक की पुनरावृत्ति मात्र हैं। इसके अतिरिक्त पूर्वार्चिक में प्रत्येक मंत्र की लय सामगान की दृष्टि से याद करनी होती है, किंतु उत्तरार्चिक में जो दो – दो और तीन – तीन मंत्रों का समूह पाया जाता है , उसका प्रथम मंत्र पूर्वार्चिक का ही है । पूर्वार्चिक में जिस लय पर यह प्रथम मंत्र गाया जाता है , वही लय उत्तरार्चिक में उस संपूर्ण दो – दो या तीन – तीन मंत्रों के समूह में प्रयुक्त की जाती है।
वास्तव में गीतिषु सामाख्या ‘ जैमिनी के इस वाक्य के अनुसार गीति ही साम है और गीति के प्राण हैं स्वर। इसी कारण सामवेद संहिता में स्वरों का अत्यधिक महत्वपूर्ण स्थान है। उच्चारण की दृष्टि से स्वर तीन हैं 1. उदात्त 2. अनुदात्त और स्वरित। सामवेद में उदात्त 1 संख्या , स्वरित 2 संख्या और अनुदात्त 3 संख्या से चिन्हित किया जाता है। स्वरित के बाद आने वाले अनुदात्तों पर सामवेद में भी कोई संख्या नहीं होती।
सामविकार के प्रकार
- सामवेद की ऋचाओं को संगीतमय बनने के लिए कुछ परिवर्तन किए जाते हैं। इन्हें सामविकार कहते हैं। वे 6 हैं-
- विकार- जहाँ शब्द के उच्चारण में परिवर्तन कर दिया जाता है जैसे अग्नि के स्थान पर ओग्नायि।
- विश्लेषण- जहाँ एक ही शब्द को पृथक्-पृथक् करके बोला जाती है जैसे ‘वीतये’ के स्थान पर ‘वोयि तोयायि’।
- विकर्षण- जहाँ एक स्वर का लंबे समय के लिए उच्चारण किया जाता है- जैसे आयाहि को स्थान पर आयाही 3।
- अभ्यास- जहाँ किसी पद का बार-बार उच्चारण किया जाता है। जैसे ‘तोयायि’ को दो बार बोला जाता है।
- विराम- जहाँ सुविधा के लिए बीच में रुका जाता है- जैसे हव्यदातये में ‘द’ पर सुविधा के लिए रुका जाता है।
- स्तोम- जहाँ कुछ अतिरिक्त पदों को जोड़ दिया जाता है। जैसे हो, ओ होवा, हाउआ, हावु, रायि आदि। ‘गृणानो’ में ह स्तोम जोड़ा जाएगा। उदाहरण के लिए ‘ अग्न आ याहि वीतये। गृणानो हव्यदातये’ को संगीतमय बनाने के लिए इसका उच्चारण इस प्रकार किया। जाएगा-
ओग्नायि आ याही ३ वोयि तायायि तोयायि।
गृणानो ह हव्यदा तये ॥
सामवेद का उपर्युक्त विभाजन कौथुम शाखा के आधार पर किया जाता है। सामवेद की राणायनीय शाखा कौथुम शाखा से भिन्न नहीं है। इसमें केवल उच्चारण का ही भेद है। जबकि सामवेद की जैमिनीय शाखा में कौथुम शाखा से 182 मंत्र कम हैं।
सामवेद का मूल्यांकन करते समय यह कहा जा सकता है कि यद्यपि साहित्य की दृष्टि से इसका विशेष महत्व भले ही न हो, परंतु भारतीय धार्मिक दृष्टिकोण से इसका भी महत्वपूर्ण स्थान है। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार सामगान के बिना यज्ञ की पूर्णता नहीं होती –
‘ न सामयज्ञो भवति ‘
अत: यज्ञ कि सफलता के लिए मंत्रों का उच्चारण उचित प्रकार से किया जाना चाहिए। इस दृष्टि से सामवेद अपरित्याज्य है। अतः स्पष्ट ही है कि सामवेद के संकलन के समय तक ऋग्वेद के मंत्रों का सस्वर लयबद्ध व आरोह अवरोह से युक्त उच्चारण कम हो गया था। इसीलिए संभवतः आने वाली पीढ़ियों को भी इन मंत्रों के स्वर, लय व आरोह, अवरोह का सही और उचित ज्ञान हो सके, सामवेद को लिपिबद्ध करने की आवश्यकता अनुभव की गई।
वास्तव में संगीत का मूल उद्गम स्रोत सामवेद ही है। अतएव इसकी ऋचाएं छन्द, छन्दसि, छन्दसिका आदि नामों से पुकारी जाती हैं। शतपथ ब्राह्मण में तो यहाँ तक भी कहा गया है कि सामवेद के गान्धर्व वेद की उत्पत्ति हुई और गान्धर्ववेद से सोलह हजार रागिनियों का निर्माण हुआ। संस्कृत साहित्य में जितने भी ललित कला विषयक ग्रंथों की रचना बाद में हुई उन सभी का स्रोत यही राग रागिनियाँ हैं। इस प्रकार संगीतात्मक और धार्मिक दृष्टिकोण से भी सामवेद का महत्त्वपूर्ण स्थान है।