जानिए ऋग्वेद (Rigveda) की व्यवस्था, धर्म, दर्शन, तिथि और वर्ण विषय के बारे में।

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ऋग्वेद (Rigveda)

 

ऋग्वेद की व्यवस्था

  • ऋग्वेद के मंत्रों का प्रादुर्भाव भिन्न-भिन्न समय पर हुआ। कुछ मंत्र प्राचीन हैं और कुछ आधुनिक। अतः इनका वर्ण्य विषय भी भिन्न है। मंत्रों के वर्ण्यविषय को ध्यान में रखते हुए इन्हें विभिन्न मण्डलों में व्यवस्थित कर दिया गया।

  ऋग्वेद की पाँच शाखाओं का उल्लेख शौनक द्वारा चरणव्यूह नामक परिशिष्ट में किया गया है- शाकल, वाष्कल, आश्वलायन, सांख्यायन और माण्डूकायन। इन 5 शाखाओं में से आजकल की प्रचलित शाखा शाकल ही है। इसके अनुसार ऋग्वेद का विभाजन मण्डल, अनुवाक, सूक्त और मंत्र में किया गया है। शाकल विभाजन के अनुसार ऋग्वेद के 10,600 मंत्र 1028 सूक्तों में, 1028 सूक्त 85 अनुवाकों में और 85 अनुवाक दस मण्डलों में विभाजित हैं।

“यस्य वाक्यं स ऋषिः, या तेनोच्यते सा देवता , यदक्षरपरिमाणं तच्छन्दः “

  मंत्रों के आह्वान कर्ता को ऋषि कहते हैं। जिसका आह्वान किया जाता है। वह देवता कहलाता है। अक्षरों की निर्धारित संख्या की सीमा को छंद कहते हैं।

  विद्वानों के अनुसार दो से सात तक के मंडल अधिक प्राचीन होने के साथ-साथ अपने वर्ण्य विषय तथा अन्य बातों में भी समान हैं। इनमें से प्रत्येक मंडल का संबंध केवल एक ही ऋषि से या उसके वंशजों से है। इन ऋषियों के नाम क्रमशः गृत्समद, विश्वामित्र, वामदेव, अत्रि, भारद्वाज और वसिष्ठ हैं। इन मंडलों में सर्वप्रथम अग्नि की, फिर इंद्र की और तत्पश्चात् कम महत्वपूर्ण देवताओं की स्तुति है। इसके अतिरिक्त इन मंडलों की सक्त संख्या प्रायः क्रमश: बढ़ती ही गई है। द्वितीय मण्डल में 43, तृतीय में 62, चतुर्थ में 58, पञ्चम में 87 षष्ठ में और सप्तम में 104 सूक्त हैं। इन 6 मण्डलों को ही ऋग्वेद का मूल माना गया है और इन्हें पारिवारिक पुस्तकों की संज्ञा प्रदान की गई है।

  ऋग्वेद का अष्टम मंडल भी कुछ हद तक पारिवारिक पुस्तकों के समान है क्योंकि इस मंडल के मंत्रों का संबंध कण्व ऋषि और उनके वंशजों से है। परंतु यह उन पुस्तकों से भिन्न भी है क्योंकि इस मंडल के मंत्र अग्नि देवता की स्तुति से प्रारम्भ नहीं होते। इसके अतिरिक्त इस मंडल में 104 सूक्त हैं जबकि अष्टम में केवल 92 सूक्त हैं। अत: इससे यह प्रतीत होता है कि यह मंडल सातवें मंडल का अंग नहीं है। परंतु थोड़ी बहुत समानता होने के कारण पारिवारिक पुस्तकों के बाद जोड़ दिया गया।

  ऋग्वेद का प्रथम मंडल आठवें मंडल से पर्याप्त साम्य रखता है। इसके भी अधिकांश सूक्त कण्व ऋषि और उनके वंशजों द्वारा देखे गये हैं। इसके अतिरिक्त कुछ मंत्र ऐसे हैं जो प्रथम और अष्टम दोनों ही मंडलों में पाये जाते हैं।

  ऋग्वेद का नवम मंडल अन्य मंडलों से भिन्न होते हुए भी अपने आप में संबंधित सा लगता है। क्योंकि इसमें केवल सोमविषयक सक्त ही है। अतः ऐसा मान लेना अनुचित प्रतीत नहीं होता कि सोमरस संबंधी सभी मंत्र पारिवारिक पुस्तकों से निकालकर एक ही मंडल में एकत्रित कर दिये गये हों। इसके अतिरिक्त इस मंडल को अलग करने का एक कारण यह भी प्रतीत होता है कि इस मण्डल के पुरोहित उद्गाता कहलाते हैं जबकि अन्य मंडलों के परोहित होता कहे जाते हैं।

  ऋग्वेद के दशम मंडल का संकलन विषय आकार और भाषा की दृष्टि से ऐसा लगता है कि बाकी मंडलों के संकलित हो जाने के पश्चात् हुआ होगा। इसके सूक्तों को देखने वाले विभिन्न मंडलों के विभिन्न ऋषि थे। इस मण्डल में स्थान – स्थान पर दूसरे मंडलों के सूक्तों का उल्लेख भी प्राप्त होता है।

  ऊपर लिखे कारणों से यह सिद्ध होता है कि दशम मंडल को सबसे अधिक आधुनिक माना गया है और अंत में रखा गया है। इस प्रकार ऋग्वेद के तीन भाग हैं। 2 से 7 तक के मंडल ऋग्वेद के मूल भाग हैं और प्राचीनतम हैं जबकि प्रथम मंडल इन पारिवारिक पुस्तक के प्रारम्भ में और अष्टम, नवम और दशम मंडल अंत में जोड़ दिये गये हैं। इस तथ्य की पुष्टि इस बात से होती है कि ऋषियों को भी प्रायः तीन भागों में विभक्त किया है। 1. शतर्चिन: 2. मध्यमा 3. क्षुद्र-सुक्ताः और महासूक्ताः।

 

“शतर्चिनः आद्ये मण्डले, अन्त्ये क्षुद्रसूक्ताः मध्यमेषु मध्यमाः “

ऋग्वेद का धर्म

  • ऋग्वैदिक धर्म मूलतः बहू देवता वादी था परंतु बाद के शुक्तो में‌ यहां एकेश्वर वादी हो जाता है-

” एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति “

  इस धर्म की कुछ प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित है-

  1. ऋग्वैदिक देवता संख्या में 33 है। वे तीन भागों में विभक्त है। इनमें पृथ्वी स्थानीय, अंतरिक्ष स्थानीय और द्युस्थानीय देवता है। इनका यहां विभाजन इनके निवास स्थान के अनुसार किया गया है पृथ्वी स्थानीय देवताओं में अग्नि अंतरिक्ष स्थानीय देवताओं में इंद्र और द्युस्थानीय देवताओं में सूर्य का सर्वाधिक महत्व है। अग्नि के द्वारा शरीर को उष्ण रखने वाला, इंद्र का अर्थ मन या जीवात्मा है और सूर्य ज्ञान का प्रतीक है।

      वेद में कुछ देवता समुदाय रूप में आते हैं जैसे मरुद्गण, आदित्यगण, वसुगण इत्यादि। देवियों का भी ऋग्वेद में महत्वपूर्ण स्थान है। उषस सबसे प्रमुख देवी है क्योंकि यह नित्य नवीन आशा का संदेश देती है। यह नवजीवन का संचार करती है। तत्पश्चात् सरस्वती तथा वाक् का स्थान है। कुछ भावात्मक देवताओं जैसे धातृ, विधातृ, मन्यु, श्रद्धा, प्रजापति इत्यादि की भी ऋग्वेद में स्तुति की गई है। गंधर्व, अप्सरा तथा ऋभु जैसे सामान्य कोटि के देवताओं का उल्लेख भी प्राप्त होता है।

      दो प्रकार के राक्षसों का वर्णन भी ऋग्वेद में मिलता है। पहले प्रकार के राक्षस अधिक बलवान और देवताओं के शत्रु होते थे। असुर शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में हीन अर्थ में नहीं हुआ है। अपितु अद्भुत शक्ति के स्वामी देवताओं के अर्थ में हुआ है। वरुण एक शक्तिशाली असुर वर्ग के ही देवता थे। ‘ अवेस्ता ‘ में भी ‘ असुर ‘ शब्द का प्रयोग बलवान् शब्द के अर्थ में हुआ है। परंतु यजुर्वेद में इसका प्रयोग दानव, दैत्य व दुष्ट शक्ति के अर्थ में हुआ है।

  2. वैदिक देवताओं का स्वरूप भी मनुष्यों के समान है। इन देवताओं के भी विभिन्न अंगों, हाथ, पैर, नाक, सिर, मुख, पीठ इत्यादि का उल्लेख हुआ है। परंतु वे छायात्मक ही हैं। अग्नि की ज्वालाएं ही उसकी जिह्वा है सूर्य की किरणें ही उसकी भुजाएं हैं और आकाश में चमकने वाली विद्युत् ही इन्द्र का वज्र है परंतु इनकी आंतरिक शक्ति का प्राकृतिक तत्व से संबंध है।

      ऋग्वैदिक देवताओं को विभिन्न वाहनों और शस्त्रों से युक्त बतलाया गया है। धनुष, बाण, वज्र, भाले इनके प्रमुख शस्त्र हैं। इनके रथ प्रायः घोड़ों द्वारा खींचे जाते हैं। इन रथों पर सवार होकर देवता यज्ञ में हवि ग्रहण करने के लिए जाते हैं। इन देवताओं को शक्ति, तेज, बल, दानादि गुणों से युक्त बतलाया गया है। ये अपने यजमानों की रक्षा करने में और उनका अभीष्ट प्रदान करने में पूर्णरूप से समर्थ हैं। युद्ध के देवता इन्द्र के अतिरिक्त सभी देवता शान्तिप्रिय हैं।

      मनुष्यों के समान ही दूध, दही, घी, मक्खन, फल, सोमरस आदि देवताओं के भी प्रिय खाद्य व पेय पदार्थ हैं । वैदिक देवता उच्च नैतिक चरित्र से युक्त माने गये हैं। वे सत्यवादी, छलकपट से दूर, दान न देने वाले के धन को हरने वाले, सब मनुष्यों के हृदय को जानने वाले माने गये हैं।

  3.  वैदिक धर्म में पुरोहितों का स्थान महत्वपूर्ण था । वैदिक आर्यों का ऐसा विश्वास था कि जब तक पुरोहित देवताओं का आह्वान नहीं करता तब तक उनकी स्तुति देवताओं तक नहीं पहुंचती। पुरोहित ही यजमान व देवताओं के प्रति मध्यस्थ का काम करता था। अतः देवताओं की कृपा व आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए पुरोहितों को संतुष्ट करना परमावश्यक था।

  4. वैदिक धर्म पलायनवादी या निराशावादी नहीं है। उपनिषदों की भांति इसका उद्देश्य मोक्ष प्राप्ति नहीं है। आशा को ऋग्वेद में परम ज्योति व निराशा को घोर अंधकार माना गया है-

“आशा हि परमं ज्योतिः नैराश्यं परमं तमः “

  वैदिक आर्य जीवन में सदा अभ्युदय की कामना करते थे। वे सभी सांसारिक सुखों की प्राप्ति के लिए पुनः पुनः प्रार्थना करते थे जैसे ” गायों , पुत्रों , रत्नों और घोड़ों से युक्त , सबके द्वारा भोगे जाने योग्य धन प्रदान करो । ” सौ वर्ष तक पूर्ण रूप से अक्षत होकर जीने की कामना की गई है-

“जीवेम शारद: शतम्। शृणुयाम शरदः शतम् । प्रब्रवाम शरदः शतम् । अदीनाः स्याम शरदः शरम् । भूयश्च शरदः शतात् । ”

5. ऋग्वेद में पशु, पक्षी, वृक्ष, नदियों आदि की पूजा का वर्णन भी प्राप्त होता है। यहाँ मयूरी को विष दूर करने वाली और वनस्पतियों को सब रोगों का नाशक बतलाया गया है।

ऋग्वेद का दर्शन।

  • ऋग्वेद के बारह सूक्त दर्शन संबंधी तत्वों का विवेचन करते हैं। इन्हीं सूक्तों के द्वारा जगत् की सृष्टि किस प्रकार हुई? इसका अधिष्ठातृ देव कौन है? संसार का चक्र किस प्रकार चलता है आदि दार्शनिक प्रश्नों पर प्रथम बार दृष्टिपात किया गया है।

  ऋग्वेद की प्रारंभिक अवस्था में बहुदेवतावाद पर विश्वास किया जाता था। परंतु मुनि इससे संतुष्ट न हो सके और धीरे धीरे एकेश्वरवाद की ओर अग्रसर हुए। इन ऋषियों की असंतुष्टि का कारण यह था कि वैदिक ऋषियों ने सोचा कि जगत का कर्ता-धर्ता, संहार करता केवल एक ही सकती हो सकती है। उन्होंने सोचा कि जैसे परिवार के सभी लोग गृहस्थी का संचालन नहीं कर सकते। केवल एक ही सदस्य द्वारा मार्गदर्शन किए जाने पर अनुशासन व सुव्यवस्था बनी रहती है। उसी प्रकार अनेक देवताओं के द्वारा नियंत्रित जगत् में अस्तव्यस्तता और अव्यवस्था हो जायेगी। अतः इस सृष्टि की संचालक एक ही शक्ति हो सकती है।

  इस संदर्भ में यह महत्वपूर्ण बात है कि यद्यपि बहुदेवतावाद के साथ ऐकेश्वरवाद असंभव है तथापि ऐकेश्वरवाद के अंतर्गत बहुदेवतावाद संभव है। कारण यह है कि यद्यपि समस्त सृष्टि का संचालक और दिग्दर्शन तो एक ही ईश्वर है फिर भी वह अपनी सहायता के लिए अन्य देवताओं को भी कार्यभार सौंप सकता है, यद्यपि उन देवताओं का कार्यभार सीमित ही होगा। हिरण्यगर्भ सूक्त का प्रस्तुत मंत्र-

“यस्य विश्व उपासते प्रशिषं यस्य देवाः “

  अर्थात् जिसकी आज्ञा की सभी देवता उपासना करते हैं ; इस तथ्य की पुष्टि करता है कि सबकी नियन्ता तो एक ही शक्ति है और शेष अन्य देवता उसके अधीन हैं।

  इन कारणों से वैदिक ऋषि यों ने एक देवता को दूसरे देवता के समान मानना प्रारंभ कर दिया और दो या तीन-तीन देवताओं का एक साथ आवान करना प्रारंभ कर दिया यह बहु देवता बाद से एकेश्वरवाद की तरफ अग्रसर होने का प्रथम चरण था। यह प्रवृत्ति बढ़ते बढ़ते इस सीमा तक पहुंच गई की ऋग्वेद में प्रजापति को ही सृष्टि के उत्पादक व रक्षक के रूप में देखा जाने लगा।

  हिरण्यगर्भ सूक्त के अनुसार संसार की उत्पत्ति हिरण्यगर्भ (सुवर्णमय अंड) से हुई। संसार में सर्वत्र विद्यमान आदिम जलों में हिरण्यगर्भ की उत्पत्ति हुई बाद में वह हिरण्यगर्भ दो भागों में विभक्त हो गया। एक से पृथ्वीलोक बना और दूसरे से स्वर्गलोक-

हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे , भूतस्य जातः पतिरेक आसीत् ।

स दाधार पृथ्वी द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम । ।

ऋग्वेद – 121 . 1

ऋग्वेद की तिथि

  • ऋग्वेद की रचना तिथि के विषय में विद्वानों में कुछ मतभेद है। कुछ विद्वानों के मत के अनुसार ऋग्वेद की तिथि शताब्दियों का अपितु हजारों वर्ष का अंतर है। कुछ के अनुसार वेदों का रचनाकाल 1200 ई. पू. का है तो कुछ के अनुसार यह 4000 ई. पू. का है। बहुत से प्रमाणित साक्ष्य का अभाव होने के कारण इनका काल निश्चित नहीं हो सका। वेदों के रचनाकाल के संबंध में जितने भी मत दिए गए हैं वह सब किसी ठोस प्रमाण के द्वारा प्रमाणित नहीं है।

  प्राचीन भारतीय परंपरा के अनुसार वेदों को अनादि और शाश्वत माना गया है। इस के अनुसार उनका रचनाकाल निश्चित करने का प्रश्न ही नहीं उठता। इस मत के अनुसार समाधिस्थ ऋषियों के शुद्ध अंतरण में मंत्रों का प्रादुर्भाव हुआ।

  बहुत समय पहले तक गुरु शिष्य परंपरा से इन मंत्रों का मौखिक रूप से आदान-प्रदान होता रहा इसी कारण से इन्हें श्रुति भी कहा गया। उसके बाद अपने अपने वर्ण्यविषय एवं पुरोहितों ( होता , उद्गाता , अध्वर्यु , ब्राह्मण ) की आवश्यकतानुसार इन मंत्रों को ऋग्वेद , सामवेद , यजुर्वेद और अथर्ववेद नामक चार संहिताओं में संकलित कर दिया गया।

  किंतु यह मत तर्कयुक्त और वैज्ञानिक न होने के कारण न तो आधुनिक भारतीय विद्वानों को और न ही पश्चात्य विद्वानों को मान्य है।

2 . वेदों की तिथि निश्चित करने में सर्वप्रथम मैक्समूलर ने प्रयास किया। उन्होंने कहा कि बौद्ध धर्म का उदय होने तक संपूर्ण वैदिक साहित्य की रचना की जा चुकी थी। उन्होंने सूत्र साहित्य और बौद्ध धर्म की उत्पत्ति का एक ही समय माना है। उन्होंने वैदिक साहित्य को चार भागों में बांटा है । 1 . छन्दकाल 2 . मंत्रकाल 3 . ब्राह्मणकाल तथा सूत्रकाल

  वेदों का रचनाकाल निर्धारित करने के लिए मैक्समूलर महोदय ने सर्वप्रथम अंतिम काल सूत्रकाल की तिथि निश्चित की। महात्मा बुद्ध का समय 500 ई. पू. का है। अतः सूत्र साहित्य का समय मैक्समूलर महोदय ने ईसा से 600 से 400 ई. पू. माना है। फिर उनके अनुसार ब्राह्मण साहित्य के विकास में भी कम से कम 200 वर्ष अवश्य लगे होंगे। अतः ब्राह्मण ग्रंथों का रचनाकार 800 से 600 ई. पू. का रहा होगा। ब्राह्मण ग्रंथों की रचना से पूर्व वैदिक संहिताओं के संपादन में भी 200 वर्ष अवश्य लगे होंगे। अत: इनका रचनाकाल 2000 से 800 ई. पू. का रहा होगा । संहिताओं के संपादन से पूर्व वैदिक मंत्र लोकप्रिय प्रार्थनाओं के रूप में प्रचलित रहे होंगे। अत: रचनाकाल 1200 से 1000ई. पू. का निश्चित होता है।

  विद्वानों ने मैक्समूलर के इस मत की भी यह कहकर कटु आलोचना की है कि वैदिक साहित्य के प्रत्येक अंग के विकास के लिए 200 वर्ष मानना केवल कल्पना मात्र ही है । बाद में मैक्समूलर ने स्वयं अपनी त्रुटि को स्वीकारते हुए गिफर्ड लेक्चर्स में स्पष्ट रूप से कहा है कि हम वेदों की रचना के समय की सीमा निर्धारित करने की आशा नहीं कर सकते । वैदिक मंत्र ईसा से 1000 या 1500 या 2000 या 3000 वर्ष पूर्व रचे गये थे।

ऋग्वेद की व्याख्या

  • विश्व साहित्य का प्राचीनतम ग्रंथ होने पर भी ऋग्वेद की शद्ध व्याख्या आज तक नहीं हो पाई है । एक तो प्राचीनतम होने के कारण वह क्लिष्ट एवं अत्यंत कठिन है और दूसरे भाषा की क्लिष्टता भावों की गंभीरता, व्याकरणात्मक विभिन्नत, मंत्रों का स्वरों से चिन्हित होना तथा ऐसे ही अन्य तथ्यों ने ऋग्वेद की व्याख्या का कार्य और भी कठिन बना दिया है। विभिन्न विद्वानों ने वैदिक मंत्रों के भिन्न-भिन्न अर्थ दिये हैं। किसी ने उनकी कर्मकाण्ड परक व्याख्या की है, तो किसी ने भाषा वैज्ञानिक तुलनात्मक अध्ययन करके वेदों का अर्थ करने का प्रयास किया है। इसी प्रकार किसी ने धातु, प्रत्यय तथा निरुक्ति के आधार पर वेदों का अर्थ किया है। कुछ अन्य विद्वानों ने वेदों की आध्यात्मिक व्याख्या भी की है।

ऋग्वेद का वर्ण्य विषय

  • ऋग्वेद के अधिकांश सूक्त विभिन्न देवी देवताओं की स्तुति के रूप में हैं। वैदिक समाज में देवताओं की स्तुति यज्ञ के माध्यम से की जाती थी। अत: ऋग्वेद का बहुत बड़ा भाग यज्ञ संबंधी सूक्तों से ही निर्मित है।

ऋग्वेद में प्राप्त होने वाले कुछ महत्वपूर्ण सूक्त इस प्रकार हैं-

1. संवाद सूक्त –

  • संवाद सूक्त ऋग्वेद के अनेक आख्यान संवाद के रूप में प्राप्त होते हैं । इन सूक्तों में कथोपकथन (बातचीत) की प्रधानता है। अत : इन्हें संवाद सूक्त कहा जाता है। इन सूक्तों में वर्णित आख्यान वास्तव में मनगढ़ंत हैं। इन आख्यानों में गूढ़ नैतिक , दार्शनिक , आध्यात्मिक तत्वों को संवाद के माध्यम से सरल , सरस और रोचक बनाकर प्रस्तुत किया गया है , परवर्ती साहित्य में यही आख्यान अनेक नाटकों महाकाव्यों तथा अन्य ग्रंथों के उपजीव्य बने । अत : इस दृष्टि से ये संवाद सूक्त ऋग्वेद के महत्वपूर्ण विषय हैं । इस प्रकार के लगभग 20 सूक्त ऋग्वेद में प्राप्त होते हैं । किंतु 3 – 4 विशेष महत्वपूर्ण हैं।

पुरुरवा उर्वशी सूक्त

  • पुरुरवा उर्वशी सूक्त प्रथम संवाद सूक्त है। पुरुरवा एक मनुष्य है और उर्वशी एक अप्सरा। दोनों चार वर्ष तक साथ – साथ रहते हैं। उनके आयुष नामक पुत्र भी होता है। किंतु उसके पश्चात् शाप के प्रभाव से उर्वशी के मिलन की यह अवधि समाप्त हो जाती है । वह एकाएक लुप्त हो जाती है । शोकविह्वल और उसे खोजने में प्रयत्नशील पुरुरवा उसे सरोवर के तट पर सखियों के साथ नृत्य करते हुए देखता है । वह उसे पुनः साथ चलने के लिए कहता है किंतु पुरुरवा से शाप की बात बतलाकर उर्वशी अपनी असमर्थता प्रकट करती है और अंत में लुप्त हो जाती है।

  यह संवाद शतपथब्राह्मण, विष्णु पुराण और महाभारत में भी प्राप्त होता है। हजारों वर्षों बाद इसी संवाद को कालिदास ने अपने नाटक ‘ विक्रमोर्वशीयम् ‘ का कथानक बनाया।

यमयमी सूक्त

  • यमयमी सूक्त एक विलक्षण संवाद सूक्त है । यम-यमी भाई बहन हैं। यमी अपने भाई यम को अनेक प्रलोभन देकर उसके सामने उससे विवाह कर लेने का प्रस्ताव रखती है, ताकि मनुष्य जाति का बीज न लुप्त हो जाए। लेकिन यम अपनी बहन के प्रस्ताव की निंदा करता है क्योंकि यह सगोत्र संबंध अनैसर्गिक, अप्राकृतिक और महर्षियों के विधानों के विरुद्ध है। वह अनैतिक और अनुचित बताकर उसे अस्वीकार कर देता है-

“पापमाहुः स्वसारं निगच्छात् “

  अर्थात् जो अपनी बहन से विवाह करता है वह पापी कहलाता है।

  यमी अपने भाई यम के कथन का यह कहकर तिरस्कार कर देती है। कि देवता चाहते हैं कि मनुष्य जाति की अभिवृद्धि के लिए यम अपनी बहन के साथ संपर्क स्थापित करे। यदि वह उसकी प्रार्थना को स्वीकार नहीं करेगा तो वह और अधिक कामातुर हो जायेगी। लेकिन यम पर इसका कुछ प्रभाव नहीं पड़ता और अंत में यमी उसे कटु वचन कहती है- ‘तुम पुरुषत्व हीन हो, पुरुषोचित भावनाओं से रहित हो और तुम्हारा हृदय भी भावुक नहीं है। इस पर वह यह कहकर संवाद को समाप्त कर देता है कि तुम किसी अन्य पुरुष का आलिङ्गन करो जिसकी भावनाएँ उत्तेजित हों।

  संभवतः इसी कारण से न केवल हिंदुओं में अपितु संसार के किसी भी कोने में सगोत्र भाई बहन का विवाह अनुचित समझा गया है।

सोम-सूर्या

  • सोम-सूर्या के मध्य हुआ संवाद है। सूर्या सूर्य की पूत्री है। सूर्य का विवाह सोम से करता है। इसमें 47 ऋचाएं हैं। सोम और सूर्या के विवाह का वर्णन अत्यंत रोचक है। सूर्य अपनी पुत्री को सोम को देते समय गृहस्थ धर्म की शिक्षा भी देता है। नव दंपत्ति को दीर्घायु, धनधान्य, नीरोग एवं पत्रपौत्रादि से संपन्न होने का आशीर्वाद देता है।

इहैव स्तं मा व्यौष्टं विश्वमायुर्व्यश्नुतम् ।

क्रीकन्तौ पुत्रैर्नृप्तृभिः मोदमानौ स्वे दमे । ।

ऋग्वेद

  इस सूक्त का महत्त्व इस बात से और बढ़ जाता है कि इसमें तत्कालीन विवाह संबंधी रीति-रिवाजों, परंपराओं एवं मान्यताओं का स्पष्ट वर्णन है।

सरमापणि संवाद

  • सरमापणि संवाद में सरमा नामक शुनी तथा पणि नामक असुरों का संवाद मिलता है। पणि लोगों ने आर्यों की गायों को चुराकर कहीं अंधेरी गुफा में डाल दिया। इंद्र ने अपनी शुनी सरमा को उन्हें खोजने के लिए व पणियों को समझाने के लिए द्रूती बनाकर भेजा । सरमा इंद्र के अतुलित पराक्रम के विषय में बतलाती है और पणियों को सचेत भी करती है पर वे उसकी बात नहीं मानते।

  ऐसा प्रतीत होता है कि ऋग्वेद के सभी संवाद सूक्त अपूर्ण हैं। ये संवाद प्राचीन आख्यानों के अवशिष्ट रूप हैं ऐसा पाश्चात्य विद्वान ओल्डेनबर्ग का मत है। इनके अनुसार वास्तव में ये आख्यान गद्य पद्यात्मक है किंतु गद्य भाग क्रमशः लुप्त हो गया और केवल पद्य भाग ही अधिक रोचक और काव्यात्मक होने के कारण बच गया।

 

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