अथर्ववेद संहिता
- वर्तमान जीवन को सुखमय बनाने के लिए जिन साधनों की आवश्यकता होती है , उन सभी की प्राप्ति के लिए किए जाने वाले अनुष्ठानों का विधान अथर्ववेद में है। ऐसा प्रतीत होता है कि पहले अथर्ववेद की गणना वेदों में नहीं की जाती थी। पहले त्रयी या वेदत्रयी से तीनों वेदों ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद का ही बोध होता था। ऐतरेय ब्राह्मण में भी कहा गया कि-
” त्रयो वेदा अजायन्त “
अर्थात् तीन वेद उत्पन्न हुए।
अथर्ववेद को वेद न मानने का कारण सम्भवतः यह था कि अथर्ववेद का वर्ण्य विषय व मूल भावना तीनों वेदों से भिन्न थी क्योंकि इसका यज्ञादि से संबंध नहीं था। परंतु आचार्य कपिल देव द्विवेदी ने इसका खण्डन किया है। कि अथर्ववेद को पहले वेद संज्ञा प्राप्त नहीं थी और बाद में यज्ञीय मंत्रों का संकलन होने पर ही इसे वेद की श्रेणी में सम्मिलित कर लिया गया। अपने मत की पुष्टि में उन्होंने निम्नलिखित तर्क दिये हैं।
- पूर्व मीमांसा में सिद्ध किया गया है कि त्रयी नाम ग्रंथों पर निर्भर न रहकर विषय पर निर्भर है। पद्य बंध को ऋक् कहते हैं, गीति को साम और गद्य को यजुः। अथर्ववेद में तीनों का समावेश होने के कारण पृथक उल्लेख नहीं किया गया।
- अथर्ववेद में कई बार अथर्वा का उल्लेख आया है। इसे अग्नि का आविष्कारक और यज्ञ विधान प्रवर्तक कहा गया है।
- वेद के चार पुरोहितों में ब्रह्मा जो अथर्ववेद का ऋत्विक है, उसे ब्रह्म विद्या के उपदेशार्थ प्रतिष्ठित किया गया है। ब्रह्मा को अथर्ववेदवित् होना अनिवार्य है।
ऋक्, साम, यजुः ये तीनों वेद यज्ञ में प्रयुक्त होते हैं। परंतु वर्तमान जीवन को सुखमय बनाने के लिए जिन-जिन साधनों की आवश्यकता होती है, उन सभी की प्राप्ति के लिए किए जाने वाले अनुष्ठानों की विधान अथर्ववेद में है। अत: वैदिक समाज का सर्वांगीण चित्र प्राप्त करने के लिए अथर्ववेद भी वेद की श्रेणी में सम्मिलित कर लिया गया।
अथर्ववेद संहिता को वेद के नाम से पुकारने के दो कारण और भी हैं। इसकी रचना ब्रह्मा नामक पुरोहित के लिए की गई थी। ब्रह्मा का कार्य है यज्ञ का भली भांति निरीक्षण करना। ऋग्वेद में होता की भांति इसे मंत्रों का, सामवेद के उद्गाता के समान मंत्रों के उच्चारणप्रकार का तथा यजुर्वेद के अध्वर्यु के समान उन यज्ञों को करने की विधि का पूर्ण ज्ञान होता था। इस प्रकार जिस तरह ऋग्वेद में विशुद्ध मंत्र हैं उसी प्रकार अथर्ववेद भी शुद्ध किए हुए मंत्रों का संकलन है। इन्हीं कारणों से अथर्ववेद को चौथा वेद मान लिया गया।
इसके अतिरिक्त यज्ञ की पूर्णता के लिए चार प्रकार के ऋत्विजों की आवश्यकता होती है। ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार यज्ञ दो प्रकार से संपादित किया जाता है। वाक् से तथा मन से। वाक् अथवा वचन के द्वारा ‘ वेदत्रयी ‘ यज्ञ के एक पक्ष को संस्कृत बनाती है तो दूसरे पक्ष का संस्कार ब्रह्मा नामक पुरोहित मन के द्वारा करता है। इसी तथ्य की पुष्टि गोपथ ब्राह्मण में भी की गई है।
शतपथ ब्राह्मण में भी स्पष्ट रूप से कहा गया है कि-
“अस्य भूतस्य निश्वसितमेतद् यद् ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदो अथर्वाङ्गिरसः “
शतपथ ब्राह्मण
मुण्डकोपनिषद् में भी कहा गया है-
” तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्ववेदः शिक्षा, कल्प इत्यादि “
मुण्डकोपनिषद्
अथर्ववेद के अर्थ और उसके विभिन्न नाम
- अथर्ववेद का अर्थ है अथर्वों का वेद या अभिचार मंत्रों का ज्ञान ( The knowledge of magic formulae ) अथर्वन् बहुत प्राचीन है। प्राचीन समय में अथर्वन् शब्द से पुरोहित का बोध होता था। लेकिन कुछ समय पश्चात् यह शब्द अभिचार के पुरोहित के अर्थ में प्रतिष्ठित हो गया। कलिपदेव द्विवेदी के मतानुसार अथर्वन् ऋषि के नाम पर इस वेद का नाम अथर्ववेद पड़ा। इस वेद में अथर्वा ऋषि के ही मंत्र सबसे अधिक हैं। इनकी संख्या 1768. है।
अथर्ववेद के उपलब्ध अनेक नामों में अथर्वाङ्गिरस एक नाम है। इसका अर्थ है अथर्वों व अङ्गिरों का वेद। पाश्चात्य विद्वानों की दृष्टि में अथर्वन् भाग में रोग नाशक और सुखोत्पादक मंत्र है। अङ्गिरस भाग में अभिचार, मारण, मोहन, वशीकरण एवं जादू टोने से संबंधित मंत्र हैं।
इसे ब्रह्मवेद भी कहा गया है। कारण यह है कि इसके 967 मंत्र ब्रह्मा द्वारा देखे गये थे। लेकिन मैक्डानल महोदय के अनुसार अथर्ववेद की रचना ब्रह्मा नामक पुरोहित के लिए हुई थी। अतः इसे ब्रह्मवेद भी कहते हैं।
अथर्ववेद की शाखाऐं
- पतञ्जलि ने महाभाष्य में अथर्ववेद की नौ शाखाओं का उल्लेख किया हुआ है-
” नवधाऽऽथर्वणो वेदः “
पतञ्जलि (महाभाष्य)
लेकिन आजकल पिप्पलाद और शौनक दो ही शाखाएँ अधिक प्रचलित हैं।
अथर्ववेद की शौनक शाखा में 2 काण्ड और 730 सूक्त हैं। इन 730 सूक्तों में लगभग 6000 मंत्र हैं। इनमें से लगभग 1200 मंत्र ऋग्वेद के हैं। इसका बीसवां काण्ड तो ऋग्वेद के ही सूक्तों से निर्मित है। विद्वानों के अनुसार 19वां, 20वां परवर्ती है। इसका लगभग छठा भाग गद्य में है।
अथर्ववेद में एक से 5 काण्डों तक के सूक्तों की संख्या बढ़ती ही गई है। प्रथम काण्ड के प्रत्येक सूक्त में 4-4 मंत्र हैं। दूसरे काण्ड के प्रत्येक सूक्त में 5-5 मंत्र हैं। तीसरे काण्ड के प्रत्येक सूत्र 6-6 मंत्र हैं। चौथे काण्ड के प्रत्येक सूक्त में 7-7 मंत्र और पांचवे काण्ड के प्रत्येक सूक्त में मंत्र संख्या 8 से 18 तक है। छठे काण्ड के प्रत्येक सूक्त में 3-3 मंत्र हैं, जबकि सातवें काण्ड के प्रत्येक सूक्त में एक या 2 ही हैं। 8 से 12 काण्ड तक लंबे-लंबे सूक्त हैं, जिनमें मंत्र संख्या बहुत अधिक है। अष्टम में ऋग्वेद के सप्तछन्दों की वर्णसंख्या तथा नवम में मधुकषा नामक औषधि का वर्णन है। दशम में ईश्वरवाद का मंडन है। एकादश में ब्रह्मचर्य का महत्व है। द्वादश में देशप्रेम से ओतप्रोत पृथ्वी सूक्त है। यद्यपि 13वें से 18वें काण्ड तक सूक्तों में मंत्रों की संख्या तो अधिक है तथापि इनमें वर्णित विषय प्रायः एक ही हैं। 15वां और 16वां काण्ड ब्राह्मण ग्रंथों की भाति गद्य में है। 19वां और 20वां काण्ड बाद में जोड़े गये।
अथर्ववेद का वर्ण्य विषय
- अथर्ववेद के प्रथम और द्वितीय काण्ड में विविध रोग, शत्रु व दीर्घायु संबंधी मंत्र हैं। तृतीय में शत्रुसेना वशीकरण, राजा का निर्वाचन एवं कृषि एवं पशुपालन संबंधी चतुर्थ में ब्रह्म विद्या, विषनाशक, राज्याभिषेक, पापमोचन ( पाप को नष्ट करना ), वर्षा जल आदि संबंधी मंत्र हैं। पंचमकाण्ड में ब्राह्मण जाति के महत्त्व एवं शत्रुनाश का वर्णन है। षष्ठ में दुःस्वप्ननाश व अन्नसमृद्धि, सप्तम में आत्मा विषयक और विजय प्राप्ति संबंधी मंत्र हैं। अष्टम में ऋग्वेद के सात छंदों के वर्गों की संख्या, नवम में मधुकषा नामक औषधि, अतिथि सत्कार मंत्र संग्रहीत हैं। दशम काण्ड में ब्रह्म विद्या तथा ब्रह्म महत्त्व का वर्णन है।
11वें में ब्रह्मचर्य का महत्त्व प्रतिपादित है। 12वें काण्ड में भूमिसूक्त है, तो 13वें काण्ड में अध्यात्म का वर्णन है। 14वें काण्ड में विवाह-संस्कार संबंधी मंत्र हैं तो 15वें काण्ड में परमात्मा की महिमा का वर्णन है। 16वें काण्ड में दुःख हरण मंत्र हैं। 17वें में वशीकरण के मंत्र हैं। 18वें में अन्येष्टि का वर्णन है। ज्योतिर्विज्ञान के संबंध में जानकारी 19वें काण्ड में प्राप्त होती है। इसमें यज्ञ, नक्षत्र राज्याभिषेक, राजसूय यज्ञ और काल का महत्त्व प्रतिपादित किया गया है। 20वां काण्ड सोमयाग का वर्णन है। इसमें इद्रं के स्तुतिपरक मंत्र भी हैं।
अथर्ववेद में चित्रित समाज मानव समाज के उदयकाल से संबंध रखता है, जिसमें तत्कालीन मानवीय भावनाओं व विश्वासों का पूर्णरूप से चित्रण किया गया है। इस वेद की विषयवस्तु में कुछ महत्वपूर्ण सूत्र इस प्रकार हैं-
- भैषज्यानि सूक्त- ये सूक्त विभिन्न रोगों की चिकित्सा से संबंध रखते हैं। ये रोग को देवता मानकर या रोग के कारणभूत असुरों को लक्ष्य करके कहे गये हैं। रोगों के लक्षण तथा उनसे उत्पन्न शारीरिक विकारों का वर्णन है। अथर्ववेद में रोगों की संख्या 99 बताई गई है। ज्वर, कुष्ट, मूर्छा, कफ, श्वास, नेत्ररोग, गंजापन, शक्तिहास, वर्णों के उपचारार्थ, सर्पदंश तथा अन्य विषैले कीड़ों के काटने से। उत्पन्न विष को दूर करने वाले, तथा उन्माद जैसे रोगों की चिकित्सा भी मंत्रों की सहायता से की गई है।
- आयुष्य सूक्त- स्वास्थ्य और दीर्घ जीवन संबंधी प्रार्थनाओं को अथर्ववेद में आयुष्य सूक्त कहा जाता है। इनका प्रयोग पारिवारिक उत्सवों के अवसर पर होता था, जैसे मुण्डन, संस्कार, उपनयन संस्कार आदि अवसरों पर। इनमें 100 वर्ष पर्यन्त जीने के लिए तथा अनेक प्रकार के रोगों से मुक्ति पाने के लिए बार-बार प्रार्थनाएँ की गई हैं जैसे-
उत्क्रामतः पुरुष मावपत्थाः मृत्योः षङ्वीशमवमुच्च्यमानः ।
( अथर्ववेद 1.1.4 )
माच्छित्था अस्माल्लोकादग्नेः सूर्यस्य संदृशः। ।
“हे पुरुष ! मौत की बेड़ियों को काटकर यहाँ से चल दे । अभी इस पार्थिव शरीर से तू अलग न हो और न तू अग्नि और सूर्य के चक्षु से दूर हो।”
3. पौष्टिकानि- इन सूक्तों में श्रमिक, कृषक, व्यापारी, चरवाहा और यहाँ तक कि जुए के खेल में विजय प्राप्त करने के लिए प्रार्थनाएं की गई हैं। अशुभ निवारण, पशुधन की सुरक्षा और व्यवसाय की वृद्धि के लिए प्रयोग में लाए जाने वाले मंत्रों को पौष्टिक सूक्त कहते हैं।
4. शृङ्गार सूक्त- इन्हें प्रसाद सूक्त भी कहा जाता है। इनमें भय से सुरक्षा, बुराई से बचने, आशीर्वाद एवं प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए प्रार्थनाएं हैं। प्रस्तुत मंत्र में पृथ्वी से सब प्रकार का सुख, समृद्धि एवं ऐश्वर्य प्रदान करने की प्रार्थना की गई है-
निधि विधती बहुधा गुहा वसु मणि हिरण्यं पृथिवी ददातु मे ।
( अथर्ववेद 12.1.44 )
वसूनि नो वसुदा शंसमाना देवी दपातु सुमनस्यमाना । ।
अनेक प्रकार की संपत्ति, धन-दौलत को धारण करने वाली पृथिवी मुझे धन, रत्न और सुवर्ण दे। मुझे उदारतापूर्वक विविध धन-धान्य से पूर्ण बनाकर वह परम दयालु देवी मुझे बहुत अधिक वस्तु से समृद्ध कर दे।
5. प्रायश्चित्त सूक्त- इस सूक्त में प्रायश्चित्त का विधान है तथा विभिन्न अपराधों के निवारक मंत्र हैं। इनमें केवल पाप के लिए नहीं अपितु यज्ञ और उत्सवों में भी गलती हो जाने पर प्रायश्चित्त का विधान है-
यदि जाग्रद् यच्च स्वप्नेन एनस्योऽकरम् ।
( अथर्ववेद 6.115.2 )
भूत मा तस्माद् भवञ्च द्रुपदादिव मुञ्चताम् । ।
अर्थात् जागते हुए या सोते हुए यदि मैंने पाप किया हो या उसकी तरफ प्रवृत्ति भी रखी हो तो उन सब भूत भविष्यत कर्मों से आप मुझे मुक्त कर दे।
6. स्त्री कर्माणि सूक्त- अथर्ववेद में विवाह और प्रेम का निर्देश करने वाले, पति पत्नी में अनुराग को विकसित करने वाले औषधियों व मंत्रों के बल से अपने प्रेमी को वश में करने वाले मंत्र भी हैं। इन्हें प्रेम सूक्त भी कहा गया है। उदाहरणार्थ प्रस्तुत मंत्र एक वशीकरण मंत्र है, जिसमें प्रेमिका अपने प्रेमी को वश में कर लेना चाहती है-
यथेमे द्यापृथिवी सद्य पर्येति सूर्यः ।
( अथर्ववेद 6.8.3 )
एषा पर्येमि ते मनो यथा मां कामिन्यसि । ।
अर्थात् जिस प्रकार सूर्य प्रतिदिन स्वर्ग और पृथिवी को चारों ओर से पर लेता है उसी तरह में भी तेरे मन को घेर लूं और तू मुझ कामिनी से सर्वथा प्रेम करता रहे।
7. राजकर्माणि सूक्त- इस सूक्त में राजाओं का वर्णन है। तथा शत्रु पर विजय की प्रार्थनाएं हैं। इनमें राज्याभिषेक, राष्ट्र में समानाधिकार, देश रक्षा, राजा के कर्तव्य, प्रजा के द्वारा राजा का निर्वाचन; न्याय और दंड विधान संबंधी मंत्र हैं। सेना और अस्त्र शस्त्रों का उल्लेख है। इन सूक्तों के अध्ययन से तत्कालीन राजनैतिक स्थिति का चित्र प्राप्त होता है। युद्ध क्षेत्र में सैनिकों में उत्साह का संचार करने के लिए व शत्रु को त्रस्त करने के लिए दुन्दुभि का वर्णन मालोपमा की सहायता से किया गया है-
यथा श्येनात् पतत्त्रिण संविजन्ते अहर्दिवि सिंहस्य स्तनयोर्यथा ।
( अथर्ववेद 5.21.6 )
एवा त्वं दुन्दुभेऽमित्रानभिक्रन्द प्रत्रासयाथो चित्तानि मोहय । ।
अर्थात् जिस प्रकार बाज पक्षी से अन्य पक्षी परेशान हो जाते हैं, जिस प्रकार सिंह की गर्जना सुनकर प्राणी भयभीत हो जाते हैं, उसी प्रकार हे दुन्दुभि! तुम हमारे शत्रुओं के प्रति गड़गड़ाहट करो, उन्हें अत्यधिक भयभीत कर दो तथा उनके चित्त को मोहित कर दो।
8. याज्ञिक सूक्त- अथर्ववेद के 20वें काण्ड में कुछ यज्ञ संबंधी मंत्र भी हैं। वे सोमयाग का वर्णन करते हैं। वे स्तुतिपरक मंत्र ऋग्वेद से लिए गये हैं।
9. कुन्ताप सूक्त- ये भी 20वें काण्ड में पाये जाते हैं। इनमें यज्ञ- संबंधी दान स्तुतियाँ, राजकुमारों व यजमानों की उदारता की प्रशंसा व अनेक पहेलियाँ और उनके समाधान हैं।
10. दार्शनिक सूक्त- अथर्ववेद के अनेक सूक्तों में ब्रह्म, विराट् ब्रह्म, माया, ईश्वर, सूत्रात्मा ऐकेश्वरवाद, जीवात्मा, प्रकृति, पुनर्जन्म, स्वर्ग, नरक आदि का वर्णन है। भूमि सूक्त में पृथ्वी की उत्पत्ति जलों से बताई गई है-
‘ याऽर्णवेऽधि सलिलमत्र आसीत् ‘
( भूमि सूक्त )
अर्थात् जो समुद्र में जल रूप में विद्यमान थी। काल को ही जगत् का परम तत्त्व स्वीकार किया गया है। उसमें केवल मन, प्राण और तप ही समाहित नहीं है बल्कि वह सबका ईश्वर और प्रजापति का भी पिता है-
काले तपः काले ज्येष्टं काले ब्रह्म समाहितम् ।
( अथर्ववेद 19.53.8 )
कालो ह सर्वस्येश्वरो यः पितासीत्प्रजापतेः । ।
विविध- अथर्ववेद में राष्ट्र की भावना पर बहुत बल दिया गया है। भिन्न- भिन्न भाषा भाषी व धर्मावलम्बी होने पर भी लोगों में परस्पर वैमनस्य व द्वेष नहीं था जैसाकि प्रस्तुत मंत्र में स्पष्ट है-
जनं बिभ्रती बहुधा विवाचसं , नाना धर्माणं पृथिवी यथोकसम् ।
( अथर्ववेद 12.1.20 )
सहस्रं धारा द्रविणस्य मे दुहां , ध्रुवेन धेनुरनपस्फुरन्ती । ।
अर्थात् अलग-अलग भाषा बोलने वाले, विभिन्न धर्मावलम्बी, नाना प्रकार के लोगों को धारण करने वाली पृथ्वी, चंचलता रहित सुस्थिर गाय के समान धन की सहस्रों धारा प्रवाहित करें।
भूमि-सूक्त ( 12.1.20 ) राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत है। यहाँ प्रथम बार भूमि को माता और स्वयं को उसका पुत्र बतलाया गया है-
” माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः “
अथर्ववेद का गोपथब्राह्मण, प्रश्नोपनिषद्, मुंडकोपनिषद व माण्डुक्योपनिषद्, वैतान नामक श्रौतसूत्र तथा कौशिक नामक गृह्य सूत्र प्राप्त होते हैं।
इस प्रकार अथर्ववेद में भारतीय सभ्यता व संस्कृति की स्पष्ट झलक दिखाई देती है। सामाजिक व राजनैतिक अवस्थाओं का जितना सुन्दर चित्र यहां है उतना और कहीं प्राप्त नहीं होता। अथर्ववेद उस समय प्रचलित रीति-रिवाजों, प्रथाओं, मान्यताओं, अंधविश्वासों रूढ़ियों, जादू-टोने, वशीकरण सभी का विस्तृत और विशद वर्णन करता है।
यह समाज के सभी वर्गों के लिए उपयोगी है। औषधिशास्त्र व आयुर्वेद की दृष्टि से तो इसका महत्त्व अवर्णनीय ( जिसका वर्णन न हो सके ) है। शांति एवं वृद्धि के साथ-साथ शाप व प्रायश्चित्त के सक्षम मंत्र भी है। यह जनसाधारण का वेद है। शिक्षित-अशिक्षित सभी इससे लाभान्वित होते हैं। देवता संबंधी विचार भी अथर्ववेद में ऋग्वेद की अपेक्षा उच्चतर है।
वर्तमान युग में भी भारत ही नहीं अपितु समस्त विश्व में अथर्ववेद में वर्णित क्रियाओं के सामानांतर प्रयोग अफ्रीका के आदिवासियों अर्थात् रेड इंडियंस में मैक्सिको के आदिवासियों, यहाँ तक कि अनेक देशों में सभ्य व शिक्षित समाज में भी ” Voodoo ” नाम से प्रचलित है। वस्तुतः अथर्ववेद के मंत्र और क्रियायें जादू-टोने और मंत्र तंत्र से संबंध रखती हैं। अतः अथर्ववेद, ऋग्वेद की अपेक्षा अधिक प्रचलित है। मैक्डानल महोदय ने सम्भवतः इसी कारण अथर्ववेद की प्रशंसा इस प्रकार की है-
” सभ्यता के घटना के अध्ययन के लिए ऋग्वेद की अपेक्षा अथर्ववेद में प्राप्त होने वाली सामग्री कहीं अधिक रोचक एवं महत्वपूर्ण है “
मैक्डानल