Bhagavad Gita Chapter 4 Shloka 22 | श्रीमद्भगवद्गीता

0
7523
Bhagavad Gita Chapter 4 Shloka image

श्रीमद् भगवद् गीता चतुर्थ अध्याय ज्ञानकर्मसंन्यासयोग

यदृच्छालाभसन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सर: |
सम: सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते || २२ ||

yadṛichchhā-lābha-santuṣhṭo dvandvātīto vimatsaraḥ
samaḥ siddhāvasiddhau cha kṛitvāpi na nibadhyate

Hindi Translation:- जो बिना इच्छा के अपने आप प्राप्त हुए पदार्थ में सदा संतुष्ट रहता है, जिसमें ईष्र्या का सर्वथा अभाव हो गया है जो हर्ष-शोक आदि द्बन्द्बों से सर्वथा अतीत हो गया है-ऐसा सिद्भि और असिद्भि में सम रहने वाला कर्मयोगी कर्म करता हुआ भी उनसे नहीं बंधता।

English Translation:- A person who is content with what he has who has no feeling of desire for other things, or uncertainty of any type, who has shed his envious feelings and who is above all even-minded in success and failure, such a person is no longer bound by Karma even if he still performs Karma.


Random Posts

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here