Puranas|पुराणों का परिचय एवं उससे जुड़ी सभी जानकारी

1
9735
Puranas

पुराण भारतीय साहित्य के गौरवग्रंथ हैं। बिना पुराणों के अध्ययन के कोई भी व्यक्ति विचक्षण (निपुण) नहीं माना जा सकता। प्राचीन मनीषियों का यह मानना है कि कोई भी विद्वान चारों वेदों को तथा उनके अंगों तथा उपनिषदों को जानता भले ही हो किंतु यदि वह पुराण को नहीं जानता तो वह विचक्षण (निपुण) नहीं माना जा सकता

यो विद्यात् चतुरो वेदान् साङ्गोपनिषदो द्विजः।।

न च पुराणमिमं विद्यात् नैव स स्याद् विचक्षणः।।

वेद हमारे सनातन धर्म के प्राचीन स्तम्भ हैं। यह निस्संदेह सत्य हैं किंतु फिर भी पुराण वेद के पूरक माने जाते हैं। हमे पुराण की मुख्य चार व्युत्पत्तियाँ मिलती है-

  1. पूरणात् अर्थात् वेद का पूरक होने के कारण पुराण, पुराण कहलाया।
  2. महाभारत के अनुसार ‘ पुराणमाख्यातम् ‘ इति अर्थात् प्राचीन आख्यानों से युक्त पुराण कहलाता है।
  3. वायु पुराण में इसकी दो व्युत्पत्तियाँ दी गई हैं-
    3.1 यस्मात्पुरा हि अनति इदं पुराणम्।
    3.2 पुरा परंपरा वक्ति पुराणं तेन वै स्मृतम्।
  4. मधुसूदन सरस्वती के अनुसार ‘ विश्वसृष्टेरितिहासः पुराणम्।

इन व्युत्पत्तियों से एक बात प्रमाणित हो जाती है कि एक तो पुराण अत्यंत प्राचीन हैं और दूसरे इनमें प्राचीन आख्यानों की विशेषता है।

सत्य यह है कि वेदों की भाषा प्राचीन और कठिन है वही पुराणों की भाषा है व्यावहारिक और शैली सरल व सरस है तथा रोचक और आख्यानमयी है। इसलिए पाठक के हृदय तक धर्म के तत्व को स्पष्ट भाषा द्वारा पहुंचा देने में पुराण से प्रतिस्पर्धी कोई शास्त्र नहीं है।

वेद उपदेशमयी होने के कारण आकर्षण विहीन (बिना, बग़ैर) हैं, लेकिन पुराण अपने उपदेशों को आख्यानों के माध्यम से प्रस्तुत करता है इसलिए उनका आकर्षण विश्वव्यापी है। पाठक के हृदय को इतना न तो वेद के कठिन मंत्र आकृष्ट करता है और न ही स्मृति का शुष्क श्लोक जितना पुराण का भक्तिरस से सम्मुटित श्लोक कहा गया है-

वेदार्थादधिकं मन्ये पुराणार्थं वरानने।

वेदाः प्रतिष्ठिता सर्वे पुराणे नात्र संशयः।।

पुराणों का प्रतिपाद्य विषय

  • विष्णु पुराण में पुराणों के पाँच प्रतिपाद्य विषय बताए गए हैं-

सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वन्तराणि च ।

वंशानुचरितं चैव पुराणं पञ्चलक्षणम्।।

  1. सर्ग :- सर्ग का अर्थ है सृष्टि की उत्पत्ति।
  2. प्रतिसर्ग :- प्रतिसर्ग का अर्थ है सृष्टि का विस्तार , लय और पुनः सृष्टि।
  3. वंश (वंशावली) :- देवताओं तथा ऋषियों की आदि वंशावली वंश है।
  4. मन्वन्तर :- विभिन्न मनुओं का समय मन्वन्तर है।
  5. वंशानुचरित :- सूर्यवंशी और चंद्रवंशी राजाओं का इतिहास वंशानुचरित है।

पुराणों के विषय में प्रतिपादित ऊपर दिए हए पाँच लक्षण केवल पुराणों में ही प्राप्त होते हैं। अन्य पुराणों में इतने ही नहीं अपितु इससे भी अधिक कितने ही विषयों का प्रतिपादन किया गया है और इसके विपरीत कुछ ऐसे पुराण भी हैं जिनमें उपर्युक्त पञ्चलक्षण प्राप्त नहीं होते।

पुराणें की संख्या

  • पुराणों की संख्या 18 है। ये 18 महापुराणो के नाम है – ब्रह्म, पद्म, विष्णु, वायु, भागवत, मार्कण्डेय, अग्नि, भविष्य, ब्रह्मवैवर्त, लिंग, वराह, स्कंद, वामन, कूर्म, मत्स्य, गरुड, ब्रह्माण्ड तथा नारद
  1. ब्रह्म पुराण :- यह सबसे प्राचीन है इसलिए इसे आदिपुराण कहते हैं। इसमें उड़ीसा के तीर्थ – स्थानों का वर्णन है तथा सूर्य की शिव के रूप में स्तुति की गई है।
  2. पद्मपुराण :- इसमें पाँच खण्ड है :- सृष्टि, भूमि, स्वर्ग, पाताल तथा उत्तर। इसमें राधा का कृष्ण की प्रेयसी के रूप में उल्लेख है। विष्णुपरक होते हुए भी यह पुराण ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों देवताओं के एकत्व की भावना को स्थापित करता है।
  3. विष्णुपुराण :- ही एक ऐसा पुराण है कि जिसमें पुराणों के पंचलक्षण प्राप्त होते हैं। इसमें विष्णु को अवतार मानकर उसकी स्तुति की गई है।
  4. वायुपुराण :- को विश्वपुराण भी कहा जाता है। इसमें शिव की स्तुति प्रमुख है। दो अध्याय विष्णु संबंधी भी हैं। संगीतशास्त्र पर भी एक अध्याय है। गुप्त साम्राज्य का वर्णन होने के कारण इसका ऐतिहासिक महत्त्व भी काफी है।
  5. भागवत पुराण :- को कई जगह पर पंचम वेद भी कहा गया हैं। इसमें विष्णु के अवतारों का विस्तार पूर्वक वर्णन मिलता है। 10वे स्कंध में कृष्ण की लीलाओं का विस्तृत वर्णन है। इसकी भाषा – शैली सुरुचिपूर्ण एवं परिष्कृत (शुद्ध) है। इसके दशावतार वर्णन में सांख्य दर्शन के कपिलमुनि और बौद्ध के प्रवर्तक गौतमबुद्ध को भी विष्णु का अवतार माना गया है। इसमें 12 स्कन्ध और 10,000 श्लोक हैं।
  6. मार्कण्डेय पुराण :- में इंद्र, ब्रह्मा, अग्नि सूर्य को प्रमुख देवता माना गया है। देवी माहात्म्य में दुर्गादेवी की महिमा का बखान किया गया है।
  7. अग्निपुराण :- का महत्त्व सबसे अधिक है। इसमें 45000 श्लोकों में विविध विषयों का प्रतिपादन किया गया है। भारतीय साहित्य एवं संस्कृति का यह विश्वकोष है। इसमें काव्यशास्त्र, व्याकरण, आयुर्वेद, ज्योतिष, धनुर्वेद, गान्धर्ववेद, अर्थशास्त्र, नाट्यशास्त्र आदि विषयों का वर्णन है।
  8. भविष्य पुराण :- में भविष्यवाणियाँ की गई हैं। इसमें चारों वर्गों के कर्त्तव्य तथा सूर्य, नाग अग्नि की पूजा का वर्णन है। इसका सृष्टिविषयक प्रकरण मनु के धर्मशास्त्र के आधार पर लिखा गया है।
  9. ब्रह्मवैवर्त पुराण :- ब्रह्म, प्रकृति, गणपति और कृष्ण इन चार खण्डों में विभाजित है। प्रकृति खण्ड में प्रकृति का दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती, सावित्री व राधा के रूप का वर्णन है। गणेश खण्ड में गणेश को कृष्ण का अवतार माना गया है तथा कृष्ण खण्ड में कृष्ण के संपूर्ण जीवन का वर्णन है। यह कृष्ण का सर्वोच्च देवता के रूप में व राधा को उनकी शक्ति के रूप में वर्णित करता है।
  10. लिंग पुराण :- लिंग पुराण में शिव के 28 अवतारों का वर्णन है। इसमें शिवपूजा, विशेषत : लिंग पूजा का प्रतिपादन किया गया है।
  11. वराहपुराण :- में विष्णु के वराहावतार का वर्णन है। यह भी वैष्णव पुराण है। इसमें नचिकेतोपाख्यान, श्राद्ध, प्रायश्चित्त, देवभूमियों की प्रतिष्ठापना, मथुरा माहात्म्य आदि का वर्णन है।
  12. स्कंदपुराण :- सबसे विशाल है। इसमें 81000 श्लोक हैं। यह 6 संहिताओं में विभक्त हैं। इसमें शिवभक्ति, योग, मोक्ष, वर्णाश्रमधर्म, वैदिक कर्मकाण्ड, सूर्य देव, विष्णु के राम रूप में अवतार लेने और भारत के सभी तीर्थ स्थानों का वर्णन है। गंगासहस्त्रनाम भी इसी पुराण में है।
  13. वामन पुराण :- में विष्णु के वामनावतार का वर्णन है इसमें 10,000 श्लोक तथा 85 अध्याय है। इसमें शिव पार्वती के विवाह का वर्णन है तथा लिंग-पूजा का विधान है।
  14. कूर्मपुराण :- यह पूर्ण रूप से प्राप्त नहीं है। इसकी पहले ब्राझी, भागवती, सौरी तथा वैष्णवी चार संहिताएँ थीं। किंतु आजकल केवल ब्राझी संहिता ही प्राप्त होती है। इसमें विष्णु का कूर्म रूप में अवतार लेने का वर्णन है। शिव के अवतारों का भी वर्णन है।
  15. मत्स्य पुराण :- मत्स्य पुराण में जलप्लावन का कथा है। इसके अनुसार विष्णु ने मत्स्य का रूप धारण करके प्रलयकालीन जलों से मनु की रक्षा की थी। इस पुराण की आंध्र वंशावली अत्यंत प्रामाणिक है।
  16. गरुड पुराण :- यह भी वैष्णव पुराण है। अन्य पौराणिक विषयों के साथ – साथ इसमें विष्णु भक्ति धार्मिक कृत्य, व्रत, प्रायश्चित्त, तीर्थ, माहात्म्य, ज्योति विद्या, औषधिशास्त्र, छंदशास्त्र, व्याकरणशास्त्र, नीति आदि विषयों का विवेचन किया गया है। इसके उत्तराखंड में, जिसे प्रेतकल्प कहा जाता है, मृत्यु के पश्चात आत्मा की स्थिति, कर्म, पुनर्जन्म, मृत्यु के लक्षण, यममार्ग, मृतक के निमित्त क्रिया – कलाप आदि का वर्णन है।
  17. ब्रह्माण्ड पुराण :- स्तोत्रों, उपाख्यानों तथा महात्म्यों का संग्रह है। इसी में अध्यात्म – रामायण भी है। इसमें वैष्णवों के व्रतों व उत्सवों का वर्णन है। इसके अतिरिक्त पाप और उनके दण्ड, वर्णाश्रमधर्म, श्राद्ध, प्रायश्चित्त आदि का भी वर्णन है। विष्णु भक्ति को ही एकमात्र मोक्ष का उपाय बताया गया है।
  18. नारद पुराण :- इन 17 पुराणों के अतिरिक्त 18 उप – पुराण भी हैं। उनके नाम हैं – 1. सनत्कुमार 2. नारसिंह 3. नारदीय 4. स्कंद 5. विष्णुधर्मोत्तर पुराण 6. आश्चर्य 7. कपिल 8. वामन 9. औशनस् 10. ब्रह्माण्ड 11. वारुणी 12. कालिका 13. माहेश्वर 14. साम्ब 15. पाराशर 16. मारीच 17. भार्गव 18. रुद्राक्ष। परंतु इन नामों में काफी मतभेद है।

पुराणों का महत्त्व

  • पुराण भारतीय सभ्यता और संस्कृति के विश्वकोश हैं। इनका महत्त्व अनेक दृष्टियों से है। जैसे-

ऐतिहासिक महत्त्व

  • एक इतिहास के पाठक के लिए जो प्राचीन इतिहास विषयक सामग्री प्राप्त करने का इच्छुक है, पुराण जानकारी के अनमोल स्रोत हैं। पुराणों में दी गई ऐतिहासिक सामग्री की पुष्टि शिलालेखों, मुद्राओं व अन्य कारणों से भी हो चुकी है। डॉ . मुखर्जी ने पुराणों के विषय में कहा है कि-

” The Puranas are of a very ancient origin they contain records of ancient facts considered to be important not only from the point of view of history but also from that of society and religion. They have been revised modernized and made up to date. “

मानव समाज का इतिहास तभी संपूर्ण रूप में समझा जा सकता है जब उसकी कहानी सृष्टि के आरंभ से लेकर वर्तमान काल तक क्रमबद्ध रूप में दी जाए।

विशाल कालखण्डों का, राजवंशों का तथा महत्त्वशाली राजाओं का विवरण देना ही पुराण का पुराणत्व है। कलिवंशीय राजाओं का सच्चा वर्णन हमें पुराणों से मिलता है, जिसकी पुष्टि आधुनिक ऐतिहासिक उपकरणों से जैसे शिलालेख, ताम्रलेख, मुद्रा आदि से भली – भाँति हो रही है। राजापरीक्षित से लेकर पद्मनन्द तक का इतिहास पुराण के आधार पर ही इतिहास प्रवीण – मनीषियों ने खड़ा कर दिया है और यह इतिहास यथार्थ है, इसमें संदेह करने के लिए स्थान नहीं है। यह एक शुभ लक्षण है कि पार्जिटर साहब के Ancient Indian Historical tradition के पश्चात् भारतीय व विदेशी विद्वानों का ध्यान पुराणों की ऐतिहासिक सामग्री की ओर आकृष्ट हुआ है।

पुराणों का सामाजिक महत्त्व

  • पुराणों का सामाजिक महत्त्व तो अत्यधिक है। ये तत्कालीन सामाजिक, राजनैतिक व आर्थिक अवस्था का स्पष्ट वर्णन करते हैं। वर्णाश्रमव्यवस्था, प्रजा, धर्म, नीति एवं अनुशासन का भी वर्णन है। मत्स्य पुराण में राजाओं के कर्तव्य व अधिकार, करनीति, युद्धनीति इत्यादि की भी विस्तृत व्याख्या है। वायु और ब्रह्माण्ड पुराण में संगीत, नृत्य, चित्रकला, कृषि, गृहनिर्माण इत्यादि कलाओं का भी उल्लेख है। इस प्रकार उस समय के रीति – रिवाजों, आचार – विचार, शिक्षा – दीक्षा, उत्सवों, त्यौहारों आदि का भी स्पष्ट वर्णन पुराणों में पाया जाता है।

भारतीय धर्म व दर्शन

  • भारतीय धर्म व दर्शन के विषय में पुराण अत्यधिक जानकारी देते हैं। सनातन धर्म पुराणों को वेदों के समान ही आप्त और प्रामाणिक मानता है। ये विभिन्न देवताओं की उपासना पद्धति का निर्देश करते हैं। ब्रह्मा, विष्णु, महेश में भिन्नता तथा एकता स्थापित करते हैं। उस समय मूर्तिपूजा प्रचलित थी। धर्म संबंधी जिन विषयों का वर्णन किया गया है वे हैं – आचार, अशौच, भक्ष्याभक्ष्य, दान, नरक, पातक, प्रायश्चित्त, श्राद्ध, संस्कार, पंचमहायज्ञ, तीर्थ, स्त्रीधर्म, उत्सर्ग, व्रत इत्यादि

पुराणों का मुख्य उद्देश्य वेदों के जटिल एवं दार्शनिक उपदेशों को तथ्यों तथा आख्यानों के माध्यम से लोकप्रिय बनाना था। अतः इनमें हिंदू धर्म अपने पूर्ण विकसित अवस्था में है।

पुराणों का भौगोलिक महत्त्व

  • पुराणों का भौगोलिक महत्त्व भी कुछ कम नहीं है। इनमें सभी भारतीय तीर्थों का विस्तृत विवेचन है, जिनमें इन तीर्थों के भूगोल का ज्ञान प्राप्त होता है। स्कन्द पुराण के काशीखंड में काशी के समीपस्थ स्थानों व शिवलिंगों का विस्तृत वर्णन प्रस्तुत किया गया है। पुराणों में दिए गए द्वीपों, समुद्रों, नदियों, पर्वतों आदि के वर्णन भौगोलिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। जम्बुद्वीप तो भारतवर्ष है। सम्राट् भरत के द्वारा शासित होने के कारण यह भारत कहलाया। पहले इसका नाम अजनाभ था। इसका शाब्दिक अर्थ है- अज अर्थात् ब्रह्मा की नाभि से उत्पन्न होने वाला।

पुराण एक विश्वकोष है। प्राचीन भारत का ज्ञान विज्ञान, वनस्पति तथा आयुर्वेद, सब कुछ एकत्र करके पुराणों में भर दिया गया है। जिस प्रकार विश्वकोष अर्थात् encyclopedia लिखने का प्रचलन है, उसी प्रकार पुराणों की रचना ज्ञान विज्ञान को रोचक बनाने की दृष्टि से की गई है। पुराण जनता का ग्रंथ है, विद्वानों का नहीं इसीलिए यह सरल व्यावहारिक भाषा में रचित है, शास्त्रीय भाषा में नहीं।

पौराणिक धर्म व देवता

  • वैदिक तथा पौराणिक धर्म में अंतर नहीं है। दृष्टिभेद और कालभेद के कारण धर्म के किसी विशेष अंश पर बल दिया गया है। वैदिक धर्म में इष्ट ( यज्ञ ) का प्राधान्य है तो पौराणिक धर्म में पूर्त अर्थात् वापी, कूप, तडाग, देवतायतन, सत्र, धर्मशाला आदि के निर्माण पर आग्रह है। सनातन धर्म दोनों के सम्मेलन पर लक्ष्य रखता है। वेदों में सर्वशक्तिमान् परमेश्वर की सर्वव्यापकता पर आग्रह है, तो पुराणों में उस सर्वशक्तिमान् के लोककल्याणार्थ बहुरूपधारण करने पर निष्ठा है। वेदों का कथन है

‘ एक सद् विप्रा बहुधा वदन्ति ‘

अर्थात् सत्य एक ही है और विद्वान उसे विविध नामों से पुकारते हैं। पुराणों की मान्यता है एक सद् बहुधा भवति।’ अवतारवाद पुराणों का एक मुख्य तत्त्व है। अवतारों की संख्या 10 है। इन अवतारों में भी राम और कृष्ण के लोकोत्तर शौर्य तथा पराक्रम के प्रति पुराणों में बहुत श्रद्धा है। पुराण भक्ति के प्रचारक ग्रंथ हैं।

निष्कर्ष

निष्कर्ष यह है कि भारतीय धर्म और संस्कृति के रूप को यथार्थतः जानने के लिए पुराण का अनुशीलन नितान्त अपेक्षित है। वेद सामान्यजन ज्ञान से थोड़ा अलग है। किंतु पुराण तो हमारे समीप है। इन पुराणों के रचयिता महर्षिवेदव्यास हमारे परम आराध्य हैं। यह सौभाग्य का विषय है कि आषाढी पूर्णिमा के दिन व्यास जी की पूजा अर्चना करके हम उनके विशाल ऋण से उद्धण होने का प्रयास करते हैं और यथासाध्य चेष्टा करते हैं कि हम उनके बताए हुए मार्ग पर निरंतर चलते रहें।

1 COMMENT

  1. We are a group of volunteers and starting a brand new scheme
    in our community. Your site offered us with helpful information to work on. You have performed a formidable activity and our whole group will be grateful
    to you.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here