छन्द परिचय
- छंद और कविता का गहन संबंध है। वैदिक साहित्य में छंद की महत्ता बताई गई है और छन्द को वेद में छान्दस कहा गया है। यहाँ तक कि ऋक, प्रतिशाख्य में छंद को ऋषि मान लिया गया है। समय-समय में इसकी नई परिभाषाएँ भी गढ़ी गई
- मूलरूप से ‘छन्द’ शब्द से वेद का ग्रहण होता है। छन्द शब्द मूल रूप से छन्दस् अथवा छन्दः है। इसके शाब्दिक अर्थ दो है – ‘आच्छादित कर देने वाला’ और ‘आह्लादन करने वाला’ ।
लय और ताल से युक्त ध्वनि मनुष्य के हृदय पर प्रभाव डाल कर उसे एक विषय में स्थिर कर देती है और मनुष्य उससे प्राप्त आनन्द में डूब जाता है । यही कारण है कि लय और ताल वाली रचना छन्द कहलाती है. छन्द का ही पर्याय वृत्त है।
वृत्त का अर्थ है प्रभावशाली रचना। वृत्त भी छन्द को इसलिए कहते हैं, क्यों कि अर्थ जाने बिना भी सुनने वाला इसकी स्वर-लहरी से प्रभावित हो जाता है। - यदक्षरं परिमाणं तच्छन्दः” अर्थात् जहाँ अक्षरों की गिनती की जाती है या परिंगणन किया जाता है, वह छन्द है।
- छन्द:शास्त्र के परिचायक नाम हैं-छन्दोविचिति, छन्दोऽनुशासन, छन्दों-विवृति तथा छन्दोमान
- पाणिनीय शिक्षा में छन्दों के महत्व को प्रतिपादित करते हुए कहा गया है-‘छन्दः पादौ तु वेदस्य’– षड् वेदांगों में छन्दःशास्त्र को वेदों का पैर (पाद) माना गया है। इसके अभाव में वह पंगु हो जाता है,अथवा उसके अध्येता का ज्ञान लड़खड़ाने लगता है।
कुछ प्रमुख छन्द :-
- वंशस्थ
- वसन्ततिलका
- शिखरिणी
- मालिनी
- भुजंगप्रयात
- स्रग्विणी
- तोटक
- विद्युन्माला
- आर्या
- इन्द्रवज्रा
- उपेन्द्रवज्रा
- शालिनी
- रथोद्धता
- द्रुतविलम्बित
- मन्दाक्रान्ता
- शार्दूलविक्रीडित
- उपजाति
- स्रग्धरा
छन्दो के प्रकार :-
संसार का समस्त वाङ्मय गद्यात्मक एवं पद्यात्मक इन दो भागों में विभक्त है। पद्यात्मक साहित्य को लय-ताल-गति-वर्ण इत्यादि विभिन्न अवयवों के माध्यम से रचा जाता है।
इन सभी अवयवों का अध्ययन जिस शास्त्र में किया जाता है उसे ही छन्दः शास्त्र कहते हैं।
छन्दों से ही काव्य में माधुर्य आता है। छन्द वस्तुत लौकिक और वैदिक भेद से दो प्रकार का होता है
लौकिक छन्द पिंगलादि आचार्यों के मत में मात्र वर्ण भेद से दो प्रकार का होता है। जैसे वृत्तरत्नाकर में कहा गया:-
पिंगलादिभिराचायैर्यदुक्तं लोकिकं द्विध।
वृत्तरत्नाकर
मात्रवर्णविभेदेन च्छन्दस्तदिह कथ्यते ।।
अर्थात् पिंगलाचार्य ने छन्द के दो भेद कहे हैं लौकिक और वैदिक। उनमें भी लौकिक छन्द मात्रा एवं वर्ण भेद से पुनः दो प्रकार के है।
वैदिक छन्द :-
वैदिक साहित्य में प्रयुक्त होने वाले छन्दों को वैदिक छन्द कहते हैं। ये एकपदी, द्विपदी, त्रिपदी, चतुष्पदी एवं चार से अधिक पादों वाले भी हो सकते हैं। वैदिक छन्दों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इनमें छन्द का निर्णय अक्षर संख्या से किया जाता है। वेद में प्रमुख रूप से सात छन्दों का प्रयोग मिलता है :-
- गायत्री छन्द – 24 अक्षर
- उष्णिक- 28 अक्षर
- अनुष्टुप् – 32 अक्षर
- बृहती -36 अक्षर
- पंक्ति: – 40 अक्षर
- त्रिष्टुप – 44 अक्षर
- जगती – 48 अक्षर
- उपर्युक्त सात छन्दों के अलावा चौदह छन्द और है जिनको अतिछन्द कहा जाता है :–
- अतिजगती = 52 अक्षर
- शक्वरी = 56 अक्षर
- अतिशक्वरी = 60 अक्षर
- अष्टि = 64 अक्षर
- अत्यष्टि = 68 अक्षर
- धृति = 72 अक्षर
- अतिधृति = 76 अक्षर
- कृति = 80 अक्षर
- प्रकृति = 84 अक्षर
- आकृति = 88 अक्षर
- विकृति = 92 अक्षर
- संस्कृति = 96 अक्षर
- अभिकृति = 100 अक्षर
- उत्कृति = 104 अक्षर
- प्रमुख वैदिक छन्द है – गायत्री छन्द
वैदिक छन्द सम्बन्धी नियम
ब्राह्मण ग्रन्थों व छन्दः शास्त्र के आचार्यों का कथन है कि निश्चित अक्षरों वाले छन्दों में एक या दो अक्षरों की अल्पता वा अधिकता से छन्द परिवर्तन नहीं होता है। जैसे:-
- ऐतरेय ब्राह्मण में लिखा है कि:-
‘न वा एकाक्षरेण छन्दांसि वियन्ति न द्वाभ्याम्’ ।
- ऐसे ही शतपथ ब्राह्मण में भी मिलता है कि:-
‘नाक्षराच्छन्दो व्येत्येकस्मान्न द्वाभ्याम्’ ।
- कौषीतकि ब्राह्मण में भी कहा गया है:-
‘नोकाक्षरेणान्यच्छन्दो भवति न द्वाभ्याम् ।
इन सभी कथनों का अभिप्राय यही है कि एक वा दो अक्षरों की न्यूनता वा आधिक्य से छन्द परिवर्तन नहीं होता है। इस अवस्था में छन्दः शास्त्र के आचार्यों द्वारा निम्न विशेषणों के नियम बनाये गए थे।
- एकाक्षरन्यून निवृत् :- जब किसी मन्त्र में निश्चित् छन्द के अक्षरों से एक अक्षर की कमी होती है तो उस कमी को दर्शाने के लिए उस छन्द के नाम के साथ ‘निवृत्’ विशेषण लगाया जाता है।
- द्वयक्षरन्यून विराट्:- जब किसी मन्त्र में निश्चित् छन्द के अक्षरों से दो अक्षरों की कमी होती है तो उस दो अक्षरों की कमी को दर्शाने के लिए उस छन्द के नाम के साथ ‘विराट्’ यह विशेषण लगाया जाता है।
- एकाक्षर-अधिक भुरिक्:- जब किसी मन्त्र में उसके छन्द के निश्चित अक्षरों में एक अक्षर अधिक होता है तब उस एक अक्षर की वृद्धि को दर्शाने के लिए उस छन्द के नाम के साथ ‘भुरिक्’ यह विशेषण लगा दिया जाता है।
- द्वयक्षर-अधिक स्वराट्:- जब किसी मन्त्र में उसके छन्द के नियत अक्षर-गणना से दो अक्षर अधिक होते हैं, तब उन दो, अक्षरों की अधिकता को व्यक्त करने के लिए उस छन्द के नाम के साथ ‘स्वराट’ यह विशेषण लगाया जाता है।
लौकिक छन्द :-
लौकिक छन्द दो प्रकार के होते है:- 1. मात्रिक छन्द (जाति) 2. वार्णिक छन्द (वृत्त)।
- मात्रिक छन्दों में मात्राओं की गणना के आधार पर छन्द का निर्धारण किया जाता है, जबकि वार्णिक छन्दों में वर्णों के गण बनाकर छन्द का निर्धारण किया जाता है। वार्णिक छन्दों में वर्णों की संख्या निश्चित होती है और इनमें लघु और दीर्घ का क्रम भी निश्चित होता है, जब कि मात्रिक छन्दों में इस क्रम का होना अनिवार्य नहीं है ।
वार्णिक छन्द तीन प्रकार का होता है:-
- समवृत्त-यहाँ श्लोक के चारों पदों में वर्णों की संख्या बराबर होती है। जैसे-इन्द्रवजा, वसन्ततिलका आदि।
- अर्धसमवृत्त छन्द-यहाँ श्लोक के प्रथम एवं तृतीय पाद तथा द्वितीय एवं चतुर्थ पाद में, वर्णो की संख्या बराबर होती है। जैसे-वियोगिनी, पुष्पिताग्रा आदि।
- विषमवृत्त छन्द-यहाँ श्लोक के प्रत्येक पाद में, वर्णों की संख्या अलग-अलग होती है। जैसे-गाथा, उद्गाथा आदि।
मात्रा
ह्रस्व स्वर जैसे ‘अ’ की एक मात्रा और दीर्घस्वर जैसे ‘आ’ की दो मात्राएँ मानी जाती है। यदि ह्रस्व स्वर के बाद संयुक्त वर्ण, अनुस्वार अथवा विसर्ग हो तब ह्रस्व स्वर की दो मात्राएँ मानी जाती है। पाद का अन्तिम ह्रस्व स्वर आवश्यकता पडने पर गुरु मान लिया जाता है।
वर्ण या अक्षर
ह्रस्व मात्रा वाला वर्ण जैसे ‘स’ लघु और दीर्घ मात्रा वाला वर्ण जैसे ‘सा’ गुरु कहलाता है ।
अक्षरों के चिह्न
प्राच्य पण्डितों ने गुरु वर्णों के लिए (‘ऽ’) चिन्ह का प्रयोग किया है, लघुवर्णों के लिए (‘।’) इस चिन्ह का प्रयोग किया है।सरलता से समझने के लिए तालिका दी गयी है।
गण का नाम | लक्षण | चिन्ह | उदाहरण |
---|---|---|---|
मगण | त्रिगुरुः | ऽऽऽ | श्रीदुर्गा |
नगण | त्रिलघुः | ।।। | रचय |
भगण | आदिगुरुः | ऽ।। | श्रीमति |
यगण | आदिलघुः | ।ऽऽ | मनीषा |
जगण | गुरुमध्यगतः | ।ऽ। | मधूनि |
रगण | ल मधयः | ऽ।ऽ | कौमुदी |
सगण | अन्तगुरुः | ।।ऽ | कमला |
तगण | अन्तलघुः | ऽऽ। | सर्वाणि |
चरण अथवा पाद
प्रत्येक छन्द के प्रायः चार चरण या पाद होते हैं।
सम और विषमपाद:
पहला और तीसरा चरण विषमपाद कहलाते हैं और दूसरा तथा चौथा चरण समपाद कहलाता है। सम छन्दों में सभी चरणों की मात्राएँ या वर्ण बराबर और एक क्रम में होती हैं और विषम छन्दों में विषम चरणों की मात्राओं या वर्णों की संख्या और क्रम भिन्न तथा सम चरणों की भिन्न होती हैं।
(ज्ञेय: पादश्चतुर्थो ऽशः) इस तरह एक श्लोक में कुल चार पाद होते है। इनमें प्रथम एवं तृतीय पाद को अयुक् (विषमपाद) तथा द्वितीय एवं चतुर्थ पाद को युक् (समपाद) कहा जाता है।
वृत्त क प्रकार
वृत्त तीन प्रकार के होते है
- समवृत्त
- अर्धसमवृत्त
- विषमवृत्त
जैसा कि छन्दोमंजरी में कहा गया है:-
सममर्धसमं वृत्तं विषमं चेति तत त्रिधा।
इसी प्रकार वृत्तरत्नाकर में भी वृत्त के भेद कहे गये है:-
सममर्धसमं वृत्तं विषमं च तथापरम्।
समवृत्त
जिस वृत्त के चारों पादों में गुरू लघु के क्रम से समान संख्या में अक्षर होते हैं वह समवृत्त होता है। छन्दोमंजरी में कहा है:-
“समं समचतुष्टयम्”
अर्थात् चारों पाद या चरणों में समान संख्या के अक्षर होते है।
- वृत्तरत्नाकर में कहा है:-
अंध्रयो सस्य चत्वारस्तुल्यलक्षणलक्षिता।
तच्छन्दः शास्त्रतत्त्वज्ञाः समं वृत्त प्रचक्षते ।।
अंध्रय का अर्थ पाद होता है। जिस वृत्त के चारों पाद समान लक्षण से युक्त होते हैं अर्थात् जिस वृत्त में चारों पाद समान अक्षर संख्या विशिष्ट होते हैं वह समवृत्त कहा जाता है। जैसे इन्द्रवज्रा, शालिनी, मालिनी, रथोद्धता वंशस्थ आदि।
समवृत्त का उदाहरण
इदं किल व्याजमनोहरं वपुः तपः क्षमं साधयितुं य इच्छति ।
ध्रुवं स नीलोत्पलपत्रधरया, शमीलतां छेत्रुमृषिर्व्यवस्यति।।”
इस श्लोक के चारों पादों में 12-12 अक्षर है। अतएव यह समवृत्त का उदाहरण है।
अर्धसमवृत्त
जिस वृत्त के प्रथम पाद और तृतीय पाद समान हो एवं द्वितीय और चतुर्थपाद समान होते है वह अर्धसमवृत्त होता है- जैसा कि केदारभट्ट ने वृतरत्नाकर में कहा है-
प्रथमांध्रिसमो यस्य तृतीयश्चरणों भवेत्।
द्वितीयस्तुर्यववृत्तं तदर्धसममुच्यते ॥
छन्दोमंजरी में कहा है:-
“आदिस्तृतीयवद् यस्य पादस्तुर्यो द्वितीयवत्”
अर्थात् जिस वृत्त का प्रथम पाद तृतीयपादवत् और तुर्य (चतुर्थ) पाद द्वितीयवत् होता है वह अर्धसमवृत्त होता है। आधा समान होने के कारण अर्धसम कहा गया है। जैसे- पुष्पिताग्रा, सुन्दरी, मालाभरिणी आदि।
अर्धसमवृत्त का उदाहरण
क्व वयं क्व परोक्षमन्मथः, मृगशावैः सममेधितो जनः।
परिहास विजल्पितं सखे, परमार्थेन न गृह्यतां वचः॥
इसके प्रथम पाद में 10 अक्षर है वैसे ही तृतीयपाद में भी 10 अक्षर है। अतः प्रथम व तृतीयपाद तुल्य हैं इसी प्रकार द्वितीय एवं चतुर्थ पाद में 11 अक्षर हैं अतः यह अर्धसम का उदाहरण है।
जिस वृत्त के प्रत्येक पाद में अक्षरों की संख्या भिन्न-भिन्न होती है वह विषम वृत्त होता है। जैसे कि छन्दोमंजरी में कहा गया है-
यस्य पाद चतुष्केखपि लक्ष्म भिन्नं परस्परम्।
तदाहुर्विषमं वृत्त छन्दः शास्त्र विशारदाः॥
जिस छन्द के चारों ही पादों में परस्पर भिन्न संख्या विशिष्ट अक्षर होते है वह विषम वृत्त है यह छन्दः शास्त्रचार्य कहते है। जैसे उद्गता सौरभकः आदि। विषमवृत्त का एक उदाहरण-
मृगलोचना शशिमुखी च, रूचिरदशना नितम्बिनी।
हंसललित गमना ललना, परिणीयते यदि भवेत् कुलोद्गता ।।
इसके प्रथम एवं द्वितीय पाद में दस-दस अक्षर हैं तृतीय पाद में ग्यारह अक्षर है और चतुर्थपाद में तेरह अक्षर हैं इस प्रकार प्रत्येक पाद में अक्षरों की संख्या भिन्न होने से यह विषमवृत का उदाहरण है।
यति
यम् धातु से भाव में क्तिन् प्रत्यय से यति शब्द निष्पन होता है। यति का अर्थ विराम होता है। छन्दशास्त्र में यति शब्द है, जिह्वा जहाँ रूकती है या विश्राम करती है वहाँ पर यति होती है। जैसा कि गंगादास ने कहा है- यतिर्जिवेष्ट विश्रामस्थानं कवभिरूच्यते।
सा विच्छेदविरामाद्यैः पदैर्वाच्या निजेच्छय।।
अर्थात पद्य के उच्चारण के समय में जिह्वा स्वतः ही जहाँ विश्राम प्राप्त करने की इच्छा करती है वहाँ पर यति होती है। विच्छेद विराम आदि पदों से भी यति का बोध होता है।
यह यति पाद के मध्य या अन्त भेद से दो प्रकार की होती है पद्य के चरण को पाद कहते हैं। चतुष्पादात्मक पद्य के प्रतिपाद के अवसान (अन्त) में स्वभावतः ही यति होती है उसे पादान्त कहा जाता है। प्रत्येक छन्द की यति भिन्न भिन्न मात्राओं या वर्णों के बाद प्रायः होती है।
छन्दों में प्रयुक्त यति के सांकेतिक शब्द :-
1.चन्द्र, पृथ्वी = एक
2.पक्ष, नेत्र = दो
3.गुण, अग्नि, राम = तीन
4.वेद, आश्रम,अम्बुधि, वर्ण, युग = चार
5. इन्द्रिय, भूत,शर, तत्व = पाँच
6. रस, शास्त्र, ऋतु = छ:
7.अश्व, मुनि, नग, लोक, स्वर = सात
8.वसु, याम, सिद्धि, भोगि = आठ
9.अङ्क, ग्रह, द्रव्य, निधि = नौ
10. दिशा, अवतार = दस
11. रुद्र = ग्यारह
12.सूर्य, मास = बारह
विशेष:- छन्द के लक्षण में यति को तृतीया विभक्ति से व्यक्त किया जाता है
छन्दों में लघु- गुरु व्यवस्था :-
लघु
हस्व स्वर (अ, इ, उ, ऋ, लृ ) को लघु माना जाता है । लघु के लिए ‘।’ चिह्न का प्रयोग किया जाता है।
गुरु
दीर्घ स्वर (आ, ई, ऊ, ॠ, ए, ओ, ऐ, औ) को गुरु माना जाता है। पाद का अंतिम लघु स्वर भी आवश्यकता के अनुसार गुरु मान लिया जाता है। गुरु के लिए ‘ऽ’ चिह्न का प्रयोग किया जाता है।
लघु- गुरु के लिए विशेष नियम :-
संयुक्ताद्यं दीर्घं सानुस्वारं विसर्ग-सम्मिश्रम्।
विज्ञेयमक्षरं गुरु: पादान्तस्थ विकल्पेन ।।
संयुक्त वर्ण के पहले वाला, हलन्त वर्ण के पहले वाला वर्ण, अनुस्वार युक्त, विसर्ग युक्त, वर्ण हस्व होते हुए भी दीर्घ माने जाते है और पाद के अन्त में आवश्यकता अनुसार हस्व को दीर्घ माना जा सकता है ।
लघु- गुरु के नियम को संक्षेप में जाने :-
1. अ, इ, उ, ऋ, लृ = हस्व
2. आ, ई, ऊ, ऋ, ए, ओ, ऐ, औ = दीर्घ
3. संयुक्त वर्ण (अक्ष,तत्र आदि) के पूर्व वाला वर्ण (अ,त) = दीर्घ
4. हलन्त वर्ण (विद्या,शक्य आदि) के पहले वाला वर्ण (वि,श) = दीर्घ
5. अनुस्वार युक्त वर्ण (पंकज) में (पं) = दीर्घ
6. विसर्ग युक्त वर्ण (राम:) में (म:) = दीर्घ
गण व्यवस्था :-
गण् धतु से कर्ता एवं कर्म में अच् प्रत्यय से गण शब्द निष्पन्न होता है। गण का अर्थ समूह होता है। किन्तु यहां पद्य पाद घटक अक्षर त्रय समुदाय को गण कहते है छन्दः शास्त्र में प्राय आठ गण होते है जैसाकि छन्दोमंजरी में कहा गया है:-
म्यरस्त जभ्नगैर्लान्तैरेभिर्दशभिरक्षरैः ।
छन्दोमंजरी
समस्तं वाङमयं व्याप्तं त्रैलोक्यमिव विष्णुना ।।
मगण, यगण, रगण, सगण, तगण, जगण, भगण, और नगण ये आठ गण होते है। तथा ग वर्ण से गुरु एवं ल वर्ण से लघु स्वीकार किया गया है। ये सभी छन्दशास्त्र में परिव्याप्त है। जैसे भगवान विष्णु समस्त जगत को परिव्याप्त होते हैं, वैसे ये है।
संस्कृत जगत में छन्द के ज्ञानलाभ के लिए गण का प्रयोजन होता है। पाद के गुरु लघु क्रम से तीन अक्षरों का समूह गण होता है। छन्दोमंजरी में गण का लक्षण क्रमशः कहा गया है।
मस्त्रिगुरुस्त्रिलघुश्च नकारो, भादिगुरुः पुनरादिलघुर्यः।
जो गुरुमधयगतो रलमधयः, सोखन्तगुरुः कथितोखन्तलघुस्तः॥
गुरुरेको गकारस्तु लकारो लघुरेककः।”
वृत्तरत्नाकर में केदारभट्ट ने गण लक्षणों को कहा है :-
सर्वगुर्मी मुखान्तौं यरावन्तगलौ सतौ।
ग्मधयाद्यौ षभौ त्रिलो नोखष्टौ भवन्त्यत्र गणास्त्रिकाः ॥
अर्थात्- मगणः त्रिगुरु। जिस गण में सभी तीनों अक्षर गुरु संज्ञक होते हैं। वह मगण होता है। जैसे ‘वागर्था’ इस गण में तीनों अक्षर गुरु है। संयोग से पूर्व अक्षर भी गुरु संज्ञक होता है। अतएव र एवं थ के संयोग से पूर्व वर्ण गकार गुरु संज्ञक होता है।
उसके बाद कहते हैं “त्रिलघुश्च नकारः” जिस गण में तीनों अक्षर लघु होते है वह नगण हाता है जैसे ‘रचय’ में तीनों लघु होने का उदाहरण है।
भगण का लक्षण है- भादिगुरुः अर्थात् जिस गण में आदि अक्षर गुरु और शेष दो लघु होते है। वह भगण होता है। जैसे ‘श्रीमति’ यहां केवल प्रथम अक्षर गुरु है शेष दोनों अक्षर लघु होने से भगण का उदाहरण है।
यगण का लक्षण “आदिलघुः यः” जिस गण में प्रथम अक्षर लघु तथा शेष दो गुरु होते है वह यगण होता है। जैसे ‘मनीषा’ इसमें प्रथम अक्षर लघु है शेष दोनों गुरु होने से यह यगण का उदाहरण है।
जगण का लक्षण “गुरुमध्यगतः” अर्थात् जगण में केवल मध्यम (बीच का) अक्षर गुरु होता है। शेष प्रथम व तृतीय लघु होते हैं। जैसे मधूनि इसमे मध्यम ‘धू’ अक्षर गुरु है तथा प्रथम ‘म’ एवं तृतीया नि दोनों लघु होने से जगण का उदाहरण है।
रगण का लक्षण है “र लमधयः” अर्थात् रगण में मध्य अक्षर लघु होता है। और शेष प्रथम व तृतीया गुरु होते हैं। जैसे कौमुदी यहाँ मध्यम अक्षर ‘मु’ लघु है तथा शेष प्रथम ‘कौ’ एवं अन्तिम ‘दी’ दोनो गुरु होने से रगण है।
सगण का लक्षण है सोखन्त गुरुः अर्थात् सगण में केवल अन्तिम अक्षर गुरु होता है शेष दोनों (प्रथम व मध्य) लघु होते हैं। जैसे- ‘कमला’ यहा अन्तिम ‘ला’ गुरु संज्ञक है तथा शेष प्रथम ‘क’ अक्षर मध्य ‘म’ दोनों लघु होने से सगण का उदाहरण है।
तगण का लक्षण है’ अन्तलघुस्तः’ अर्थात् जिसमें अन्त लघु होता है जैसे- ‘सर्वाणि’ यहा अन्तिम ‘णि’ लघु सज्ञंक है तथा शेष ‘स’ ‘र्वा’ दोनों गुरु सज्ञंक होने से तगण है। क्योंकि संयोग से पूर्व भी गुरु होता है। ‘र्वा’ इस संयोग से पूर्व ‘स’ गुरु हुआ। इस प्रकार अक्षरत्रय के आधार से आठ गंण है।
इसके बाद गकार के विषय में कहा है “गुरुरेको गकारस्तु” यहाँ केवल एक अक्षर ‘ग’ का अर्थ गुरु होता है। जैसे ‘सा’ यहां सा गुरु वर्ण है।
अन्त में लकार के विषय में कहते हैं- ‘लकारो लघुरेककः’ एक अक्षर वाला लघु वर्ण लकार होकर है। जैसे ‘नु’ यहां ‘नु’ लघुवर्ण है। जिसको ‘ल’ के रूप में लिखते है। यहाँ अक्षर का अर्थ – स्वर या स्वर युक्त व्यंजन से है।
वर्णिक छन्दों में वर्ण गणों के हिसाब से रखे जाते हैं। तीन वर्णों के समूह को गण कहते हैं। छन्दों में कुल 8 गण होते हैं। इन गणों के नाम है यगण, मगण, तगण, रगण, जगण, भगण, नगण और सगण। अकेले लघु को ‘ल’ और गुरु को ‘ग’ कहते हैं। इन गणों को इस सूत्र द्वारा जाना जा सकता है-
यमाताराजभानसलग।
जिस गण को जानना हो उसका वर्ण इस में देखकर अगले दो वर्ण और साथ जोड़ लेते हैं और उसी क्रम से गण की मात्राएँ लगा लेते हैं, जैसे:-
— यगण– यमाता =।ऽऽ आदि लघु
— मगण– मातारा = ऽऽऽ सर्वगुरु
— तगण– ताराज = ऽऽ। अन्तलघु
— रगण– राजभा = ऽ।ऽ मध्यलघु
— जगण– जभान =।ऽ। मध्यगुरु
— भगण– भानस = ऽ।। आदिगुरु
— नगण– नसल =।।। सर्वलघु
— सगण – सलगाः =।।ऽ अन्तगुरु
छन्दों का अवतार :-
लौकिक छन्दों का अवतार या आविष्कार महर्षि वाल्मीकि के मुख से सहसा करुण रस के रूप में उद्भूत प्रथम पद्य था, जिसके सम्बन्ध में कहा गया था ‘नूतनश्छन्दसामवतारः’ वह पद्य इस प्रकार है-
‘मा निषाद् प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः ।
यत् क्रौञ्चमिथुनादेकमवधी: काममोहितम् ॥
युधिष्ठिर मीमांसक द्वारा रचित ‘वैदिकच्छन्दो मीमांसा’ के अनुसार छन्दों के अवतरण का क्रम निम्ननिर्दिष्ट है-
छन्दःशास्त्रमिदं पुरा त्रिनयनाल्लेभे गुहोऽनादित-
स्तस्मात् प्राप सनत्कुमारकमुनिस्तस्मात् सुराणां गुरुः ।
तस्माद् देवपतिस्तत: फणिपतिस्तस्माच्च सत्पिङ्गल-
स्तच्छिष्यैर्बहुभिर्महात्मभिरथो मह्या प्रतिष्ठापितम् ॥
छन्दःपरिचायक ग्रन्थ-
- श्रीकेदारभट्ट कृत वृत्तरत्नाकर
- कालिदास कृत श्रुतबोध
- दामोदर मिश्र कृत वाणीभूषणम्
- हेमचन्द्र कृत छन्दोऽनुशासन
- दु:खभंजन कृत वाग्वल्लभ
- आचार्य क्षेमेन्द्र कृत सुवृत्ततिलक
- गंगादास कृत छन्दोमंजरी
सम्प्रति उपलब्ध छन्दोग्रन्थों में आचार्य पिंगल कृत ‘छन्द:सूत्र’ या ‘छन्दःशास्त्रम्’ सर्वप्राचीन है।