श्रीमद् भगवद् गीता तृतीय अध्याय कर्मयोग
यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानव: |
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते || १७ ||
yas tvātma-ratir eva syād ātma-tṛiptaśh cha mānavaḥ
ātmanyeva cha santuṣhṭas tasya kāryaṁ na vidyate
Hindi Translation:- परन्तु जो मनुष्य आत्मा में ही रमण करने वाला और आत्मा में ही तृप्त तथा आत्मा में ही संतुष्ट हो, उसके लिये कोई कर्तव्य नहीं है।
English Translation:- He, O Arjuna, who is satisfied and content in himself, and he who is absorbed in himself, actions and duties do not exist (for him).
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