संस्कृत भाषा का शिक्षण में महत्व | Importance of Sanskrit language in teaching

0
8962

भारत में संस्कृत भाषा का शिक्षण में महत्त्व

आज हम संस्कृत भाषा में शिक्षण का महत्त्व निचे दिए गए बिंदुओं के आधार पर समझेंगे

संस्कृत प्राचीनतम भाषा

संस्कृत प्राचीनतम भाषा :-  संस्कृत भारत की ही नहीं , विश्व की प्राचीनतम् भाषा है। विश्व के अन्य देशों में लोग जिस समय सांकेतिक भाषा से काम चला रहे थे उस समय भारत में संस्कृत भाषा द्वारा ब्रह्म ज्ञान का प्रसार किया जा रहा था।

भाषा इस अर्थ में संस्कृत का प्रयोग वाल्मीकि रामायण में सर्वप्रथम मिलता है।

वाल्मीकि रामायण के सुन्दरकाण्ड में सीता जी के साथ किस भाषा में बात करनी चाहिए ? यह सोचते हुऐ हनुमान जी ने कहा था :-

यदि वाचं प्रदास्यामि द्विजातिरिव संस्कृताम्।
रावणं मन्यमाना मां सीता भीता भविष्यति ॥

इससे संस्कृत भाषा का प्राचीनता प्रदर्शित होती है कि हनुमान भी संस्कृत बोलने में समर्थ थे।

ईसा ० पू ० द्वितीय शताब्दी में संस्कृत हिमालय व विन्ध्य प्रदेश के बीच में व्यवहार की भाषा थी।

ब्राह्मण के अतिरिक्त अन्य वर्णों के लोग भी इनका प्रयोग करते थे। जो बोलने में असमर्थ थे इस भाषा को समझ अवश्य जाते थे।

प्राचीन शिलालेखों पर भी संस्कृत भाषा अंकित है। महर्षि यास्क तथा पाणिनी आदि विद्वानों ने भी संस्कृत के लिए भाषा शब्द का प्रयोग किया है। इससे स्पष्ट होता है कि ईसा पूर्व की शताब्दी में भी संस्कृत जन साधारण की भाषा थी।

संस्कृत भाषा में लिखित साहित्य दो रूपों में मिलता है — वैदिक तथा लौकिक
वैदिक साहित्य की दृष्टि से भी संस्कृत भाषा का विशिष्ट महत्त्व है – वेद का महत्त्व इस प्रकार वर्णित है ।

प्रत्यक्षेणानुमित्या वा यस्तूपायो न बुध्यते ।
एतं विदन्ति वेदेन तस्माद् वेदस्य वेदता ॥

ऋग्वेद संस्कृत भाषा में रचित विश्व की प्राचीनतम् रचना है।

पतञ्जलि ने ही महाभाष्य में एक स्थान पर लिखा है  :—

“ ग्रामे ग्रामे काठकं कालापकं च प्रोच्यते । ”

अर्थात् भारत के ग्राम ग्राम में वेदों की कठ तथा कापालक शाखा का अध्ययन होता था।

आचार्य दण्डी ने काव्यादर्श में कहा है:

संस्कृतं नाम दैवी वागन्वाख्ख्याता महर्षिभिः।
भाषासु मधुरा मुख्या दिव्या गीर्वाण भारती ॥

अर्थात् संसार की समस्य भाषाओं में से त्रिकालदर्शी ऋषियों द्वारा ईश्वरीय भाषा संस्कृत प्रचलित हुई ।

संस्कृत सांस्कृतिक भाषा

संस्कृत सांस्कृतिक भाषा- संस्कृत भाषा भारतीय संस्कृति का आदि स्त्रोत है। यह भाषा संस्कारित, परिष्कृत तथा परिमार्जित है।
जैसा कि इसकी शाब्दिक व्युत्पत्ति से भी स्पष्ट होता है। ‘ संस्कृत ‘ यह शब्द सम् उपसर्ग पूर्वक √कृ धातु से बना है , जिसका मौलिक अर्थ है- ‘ संस्कार की गई भाषा ‘।
हमारे सोलह संस्कार इस संस्कारित भाषा में ही कराए जाते हैं। इन संस्कारों से आत्मा तथा अन्तःकरण की शुद्धि होती है। Aभारत के उच्चकोटि के सांस्कृतिक विचार , आध्यात्मिक भाव , उच्च नैतिक मूल्य आदि संस्कृत भाषा में ही सुरक्षित हैं।

सर्वे भवन्तु सुखिन: ‘, ‘ उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुंबकम् ‘, ‘ कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कादाचन ‘ जैसे उत्प्रेरणात्मक सुभाषित वाक्य व श्लोक हमे इस ही भाषा में मिलते हैं।

संस्कृत राष्ट्रीयेकता की भाषा

संस्कृत राष्ट्रीय एकता की भाषा  : संस्कृत साहित्य ने सम्पूर्ण भारत को एकता के सूत्र में बाँधने का कार्य किया है । बहुभाषाभाषी तथा अनेक प्रान्तों में विभक्त भारत में वाह्य भेद अवश्य हैं , तथापि उसकी संस्कृति एक ही है ।

19 वीं शताब्दी में जितने भी व्यक्ति विकास के लिए आगे बढ़े , उनमें लगभग सभी संस्कृत के पण्डित थे । उन्होंने संस्कृत विद्या से ही प्रेरणा प्राप्त की थी , जैसे-
  राम मोहन राय , दयानन्द सरस्वती , लोकमान्य तिलक और महामना मालवीय जी । भारत में बोली जाने वाली सभी भाषाएँ संस्कृत रूपो महावृक्ष की लतायें हैं , यह कहना अनुचित नहीं होगा । महाभारत और रामायण में जो नीति तत्त्व हैं , उन्हीं के आश्रय से ही भारतीयों के वैयक्तिक तथा सामाजिक जीवन का निर्माण हुआ है ।
  
  इसी कारण से भारत में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति के लिए संस्कृत का सामान्य ज्ञान आवश्यक सा हो जाता है ।
  ” अपनत्व तथा आत्मीयता का उदाहरण अथर्थवेद के भूमिसूक्त में मिलता है— “ मातृभूमिः पुत्रोऽहम् पृथिव्याः ‘
  यह भूमि मेरी माँ है , मैं इसका पुत्र हूँ ।
   इस उदात्त कल्पना का प्रथम दर्शन हमें ऋग्वेद के ही मंत्रों में मिलता है । कुछ मन्त्र प्रस्तुत हैं
 
धौमॅपिता जनिता ( ऋग्वेद 1 | 164 33 ) द्यौः पिता जनिता ( अर्थव ० 9 10 12 ) द्यौमें पिता पृथिवी मेमाता ( काठक सं ० ) 7 | 15 | 16 )

अन्तर्राष्ट्रीय एकता की भाषा संस्कृत –

संस्कृत अंतर्राष्ट्रीय एकताकी भाषा – संस्कृत भाषा का महत्त्व केवल राष्ट्र को एकता के सूत्र में बाँधने तक ही सीमित नहीं है , अपितु इसका प्रभाव अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी स्पष्ट दिखाई देता है। संस्कृत के नाम तथा शब्द आज भी इन देशों में प्रचलित हैं। वाली प्रायद्वीप के सरस्वती पूजा आज भी की जाती है।

इनमें से कतिपय देशों में भारतीय कलैण्डर का ही अनुकरण किया जाता है।

कुछ देशों में तो वास्तविक रूप में भारतीय रीति – रिवाज प्रचलित है । वहाँ संस्कृत साहित्य की आज भी चर्चा होती है ।डॉ ० रघुवीर के अनुसार मंगोलिया के भीतरी भागों में दण्डी के काव्यादर्श का पठन – पाठन होता है ।

तमिल , तेलगु , मराठी , गुजराती आदि सभी भारतीय भाषाएँ संस्कृत से अनुप्राणित हैं । संस्कृत को न केवल भारत में बल्कि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी महत्व प्राप्त है। रूस के मास्को , लेनिनग्राद आदि विश्वविद्यालयों में संस्कृत को ऊँचा स्थान प्राप्त है । इन विश्वविद्यालयों में

” भारतीय भाषा भूमिका ” नामक पाठ्यक्रम में वहाँ के छात्र संस्कृत विषय में अनुसन्धान करते हैं । रूसी भाषा के माध्यम से संस्कृत व्याकरण और संस्कृत की प्रारम्भिक पुस्तकें भी वहाँ पर्याप्त प्रकाशित हो चुकी हैं । बहुत वर्षों पहले रूस से आये हुए डॉ ० लुई रेणु ने कहा था कि ” विश्व की सभी भाषाएं संस्कृत से प्रभावित है।
एशिया के अनेक देशों की भाषा तो संस्कृत शब्दों से भरी है।

अमरीका में भी संस्कृत को अत्यधिक महत्त्व प्राप्त है — ‘ अमरीकी कांग्रेस पुस्कालय ‘ में करीब 7000 संस्कृत को हस्तलिखित पुस्तकें सुलभ हैं । अमरीका के पीरू प्रान्त की कुईचुआ भाषा संस्कृत शब्दों से भरी है , इसलिए वहाँ अनेक के विश्वविद्यालयों में संस्कृत पढ़ाई जा रही है ।

संस्कृत भाषा का समृद्ध साहित्य :-

संस्कृत भाषा का समृद्ध साहित्य :- भारत की आदि मनीषा देववाणी से ही विकसित हुई है। भारत की चेतना , उसका रूप इसी वाणी में निहित है। संस्कृत केवल एक भाषा नहीं है एवं भारत में उसका अध्ययन केवल एक भाषा विशेष का ज्ञान प्राप्त करना नहीं है। ज्ञान को भारत देश में सर्वाधिक पवित्र रूप में स्वीकार किया गया है। संस्कृत के अध्ययन से हमें आत्मबोध होता है।

ऐसी आत्मबोधा संस्कृत भाषा के विशाल साहित्य को सामान्य तौर पर दो भागों में बाँटा जा सकता है
( i ) वैदिक साहित्य ( ii ) लौकिक साहित्य
( i ) वैदिक साहित्य – भारतीय संस्कृति के इतिहास में वेदों का स्थान गौरवपूर्ण है। वेद मर्मज्ञों ने स्वीकार किया है कि “ ऋषयोमन्त्रद्रष्टारः ‘ अर्थात ऋषिगण मन्त्र के दृष्टा हैं । वैदिक युग को दो भागों में बाँटा गया है
( अ ) पूर्व वैदिक युग , ( ब ) उत्तर वैदिक युग।
  ( अ ) पूर्व वैदिक युग इसमें चार वेद व उसकी चार संहिताओं का वर्णन है।
   ( ब ) उत्तर वैदिक युग- इसमें ब्राह्मण , आरण्यक , उपनिषद और षड् वेदांगों का वर्णन है।
  
वैदिक साहित्य भारत यूरोपीय संस्कृति से समवेत करके हमारी प्राचीन संस्कृति का चित्रण करता है । वैदिक आर्य अनेक देवों के पूजक होते हुए भी यह भली – भाँति जानते थे कि समस्त देव एक ही सर्वव्यापी परमेश्वर के विविध रूप हैं।

एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति ,
अग्निं यमं मातारिश्वानमाहुः । ( 1166 | 46 ) ‘


परमात्मा एक है , तब भी विद्वान उन्हें अग्नि , यम , मातारिश्वा आदि अनेक नामों से पुकारते हैं ।
  ‘ वेद अपने रचना काल से ही मानवीय मनीषा और प्रतिभा के सर्वोच्च शिखर रहे हैं । सम्प्रति संसार के साहित्य में कहीं कुछ भी ऐसा नहीं है , जिसकी तुलना मानवीय भावनाओं की गम्भीरता और मानवीय प्रेरणाओं की तीव्रता की दृष्टि से वेदों से की जा सके ।
   वेदज्ञ की प्रशंसा में मनु की यह उक्ति बड़ी मार्मिक है—

वेदशास्त्रार्थतत्वज्ञो यत्र कुत्राश्नमे वसन् ।
इहैव लोके तिष्ठन् स ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ ( मनुस्मृति 12 | 102 )

वेदशास्त्र के तत्व को जानने वाला व्यक्ति जिस किसी आश्रम में निवास करता हुआ कार्य का सम्पादन करता है , वह इसी लोक में रहते हुए भी ब्रह्म का साक्षात्कार करता है ।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here