काव्यशास्त्र की विकास यात्रा का मूल्यांकन करने वाले सभी विद्वान् इस शास्त्र का मूल ऋग्वेद को मानते हैं। ऋग्वेद के मंत्रो में काव्यशास्त्र से सम्बन्धित रस शब्द का स्पष्ट उल्लेख आता है।
‘ दधान: कलशे रसम् ‘
ऋग्वेद की एक उक्ति में उपमा पद का भी स्पष्ट प्रयोग मिलता है :-
‘ ईयुषी रागमुपमा शश्वती नाम ‘
इस प्रकार रूपक, अशियोक्ति , पुनरुक्तवदाभास . लाटानुप्रास आदि अलंकारों का प्रयोग ऋग्वेद में उपलब्ध होता है।
संस्कृत काव्य शास्त्र को अलंकार शास्त्र भी कहते हैं। इस शास्त्र का आदिम ग्रंथ भरत मुनि विरचित नाट्य शास्त्र है। यह 200 ई . की रचना है।
अलंकारशास्त्र केवल अलंकारों का वर्णन करने वाला शास्त्र नहीं है अपितु काव्य में सौन्दर्य का प्रतिपादक शास्त्र है। आचार्य वामन के अनुसार ‘ सौन्दर्यमलङ्कारः ‘ अर्थात् काव्य के सौंदर्य को उत्कृष्ट करने के लिए जितने भी तत्त्व होते हैं, उन सबको अलंकार कहते हैं।
डॉ. पी.वी. काणे ने ऋग्वेद के एक मंत्र को उद्धृत (उबारा हुआ) कर उसमें चार उपमाएँ दिखाई हैं :-
अभ्रातेव पुंस एति प्रतीची गर्तारुगिव सनये धनानाम् ।
ऋग्वेद -1 / 124/7
जायेव पत्य उशती सुवासा उषा होव निरिणीते अप्सः ।।
डॉ. काणे ऋग्वेद के एक अन्य मंत्र में रूपक अतिशयोक्ति अलंकार की ओर ध्यान आकर्षित करते हैं :-
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते ।
ऋग्वेद -1.164.20
तयोरन्यः पिप्पलं स्वावत्त्यनश्नन्नन्योऽभिचकाशीति ।।
dva suparṇa sayuja sakhaya samanaṁ vṛkṣaṁ pariṣasvajate |
tayoranyaḥ pippalaṁ svadvattyanaśnannanyo abhicakasiti ||
Hindi Meaning:- दो सुन्दर पंखों वाले पक्षी, घनिष्ठ सखा, समान वृक्ष पर ही रहते हैं; उनमें से एक वृक्ष के स्वादिष्ट फलों को खाता है, अन्य खाता नहीं अपितु अपने सखा को देखता है।
English Meaning:- Two birds, beautiful of wing, close companions, cling to one common tree: of the two one eats the sweet fruit of the tree, the other eats not but watches his fellow.
डॉ . काणे का मानना है कि इन मंत्रों में प्रयुक्त उपमा तथा अतिशोक्ति अलंकार अत्यन्त उत्तम कोटि के हैं। इसी प्रकार व्यतिरेक, श्लेष , उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों का पर्याप्त प्रयोग ऋग्वेद तथा अन्य वैदिक ग्रन्थों में मिलता है।
काव्य शास्त्र के विविध तत्त्वों को आधार बनाकर अनेक विद्वानों ने वैदिक साहित्य का अध्ययन किया है तथा सार रूप में काव्यशास्त्र का मूल वैदिक साहित्य को मानने के अनेक प्रमाण प्रस्तुत किये हैं।
डॉ. काणे का मानना है कि ऋग्वेदकालीन कवियों ( ऋषियों ) ने उपमा, अतिशयोक्ति, रूपक आदि अलंकारों का प्रयोग ही नहीं किया, अन्य काव्यशास्त्र के सिद्धान्तों का भी उन्हें कुछ ज्ञान था। ( संस्कृत काव्यशास्त्र का इतिहास पृ . 407 पुराना है )।
ऋग्वेद के मंत्रो में काव्य शब्द का भी उल्लेख मिलता है।
आदेवानामभवः केतुवग्नेमन्दो विश्वानि काव्यानि विद्वान् ।
ऋग्वेद 3.10.17
यहाँ अग्नि को काव्यों का ज्ञाता कहा गया है।
वैदिक साहित्य में नाट्य – तत्त्व का भी पर्याप्त उल्लेख मिलता है।
- विश्वामित्र एवं नदी संवाद ( ऋग्वेद 3.33 )
- यम और यमी संवाद ( ऋग्वेद 10.10 )
- शर्मा और पाणि संवाद ( ऋग्वेद 10.108 )
आदि अनेक सूक्त हैं जो नाटको में दृष्टिगत होने वाले कथोपकथन के समतुल्य हैं।
ऋग्वेद में वीणा, दुन्दुभि, गर्गर आदि वाद्य यंत्रों का उल्लेख है। ऋग्वेद के एक मंत्र में उषा देवी की तुलना नर्तकी से की गई है। वह नग्न वक्षवाली है तथा आभूषणों को पहनकर नृत्य करती है।
भरतमुनि ने नाट्य के प्रमुख तत्व पाठ्य, गीत, अभिनय तथा रस का स्रोत क्रमशः ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद को माना है :-
जग्राह पाठ्यं ऋग्वेदात् सामभ्यो गीतमेव च ।
नाट्यशास्त्र 1.17
यजुर्वेदादभिनयान् रसानाथर्वणादपि ।।
इन तथ्यों के आधार पर काव्यशास्त्र का मूल ऋग्वेद को मानने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है। ऋग्वेद के बाद के ग्रन्थों में काव्यशास्त्रीय तत्त्वों का प्रयोग पर्याप्त मात्रा में किया गया है।
कठोपनिषद् के इस मंत्र में रूपक अलंकार की छटा दर्शनीय है:-
आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु ।
कठोपनिषद्
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च ।।
इस जीवात्मा को तुम रथी, रथ का स्वामी, समझो, शरीर को उसका रथ, बुद्धि को सारथी, रथ हांकने वाला, और मन को लगाम समझो।
इसी प्रकार मुण्डकोपनिषद् का यह मन्त्र रूपक अलंकार की दृष्टि से देखने लायक है:-
प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते ।
मुण्डकोपनिषद्
अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत् ॥
प्रणव धनुष है, आत्मा बाण है और ब्रह्म उसका लक्ष्य है। उसका सावधानीपूर्वक वेधन करना चाहिए और बाण के समान तन्मय हो जाना चाहिए।
इस प्रकार के अनेक उदाहरण ब्राह्मण, आरण्यक एवं उपनिषद् ग्रन्थों में भी मिलते हैं।
तैत्तिरीयोपनिषद् में रस को परमानन्द स्वरूप कहा गया है जिसको काव्यशास्त्र में बिना किसी परिवर्तन के स्वीकार किया गया तथा उसकी सिद्धि में अनेक प्रमाण प्रस्तुत किये गये –
रसं ह्येवायं लब्ध्वानंदी भवति । रसो वै सः ।
आचार्य यास्क ने अपनी रचना निरुक्त में उपमा अलंकार का भेद सहित वर्णन किया है। आचार्य पाणिनि ने अष्टाध्यायी में उपमा के विविध अवयवों का वर्णन किया है।
परन्तु समग्र रूप से काव्य ग्रन्थों की उपलब्धि रामायण और महाभारत के रूप में होती है। रामायण को आदिकाव्य कहा जाता है। परवर्ती कवियों के लिए ये दोनों महाकाव्य उपजीव्य के रूप में प्रसिद्ध हुए।
इतना ही नहीं इन दोनों महाकाव्यों को परवर्ती काव्यशास्त्रकारों ने लक्ष्य ग्रन्थ के रूप में स्वीकृति दी तथा इनके आधार पर विविध काव्यशास्त्रीय सिद्धान्तों का उन्मेष हुआ।
ध्वन्यालोकार आचार्य आनन्दवर्धन ध्वनि – सिद्धान्त की स्थापना में रामायण को प्रमाण रूप में उपस्थित करते हैं:-
काव्यस्यात्मा स एवार्थस्तथा चादिकवेः पुरा ।
ध्वन्यालोक
क्रोञ्चद्वन्द्ववियोगोत्थः शोकः श्लोकत्वमागतः ।।
इसी प्रकार आचार्यों ने सिद्धान्तों के निर्माण में इन दोनों महाकाव्यों का भरपूर उपयोग किया। इन दोनों महाकाव्यों के प्रणयन के बाद संस्कृत काव्य – परम्परा का खूब सम्बर्धन हुआ।
भास, कालिदास, दण्डी, भारवि, अश्वघोष आदि महाकवियों ने अपनी लेखनी से श्रेष्ठ काव्यों की रचना कर काव्य सृजन की परम्परा को पराकाष्ठा पर पहुँचाया। परन्तु काव्यशास्त्रीय लक्षण ग्रन्थ के रूप में भरत मुनि प्रणीत नाट्यशास्त्र ही प्रथम रचना है।
इसके पूर्व हमें कोई आकर ग्रन्थ नहीं मिलता है, जिसमें काव्यशास्त्रीय सिद्धान्तों का विवेचन हो। इसका यह तात्पर्य नहीं है कि इससे पूर्व ऐसे ग्रन्थ नहीं थे। नाट्यशास्त्र की प्रौढ़ता से ही सिद्ध हो जाता है कि इसकी रचना के पूर्व पर्याप्त लक्षण ग्रन्थ उपलब्ध थे। भरत मुनि ने उन सबका समन्वय नाट्यशास्त्र के रूप में किया।
जूनागढ़ ( 150 ई.पू. ) में प्राप्त रुद्रदामन के शिलालेख के अध्ययन के आधार पर डॉ. काणे का मानना है कि इस काल तक काव्यशास्त्र का पर्याप्त विकास हो चुका था। इस शिलालेख का रचयिता अपने समकालीन काव्यशास्त्र में प्रस्तुत कवियों के स्तर की रचना करने का प्रयल कर रहा है।
समकालीन अन्य शिलालेखों में भी काव्यशास्त्र की समृद्धावस्था का प्रमाण मिलता है। इन सब प्रमाणों के आधार पर हम कह सकते हैं कि नाट्यशास्त्र से पूर्व अनेक काव्यशास्त्रीय लक्षण ग्रन्थ प्रचलित थे परन्तु नाट्यशास्त्र की प्रौढ़ आभा में वे धूमिल हो गये तथा धीरे – धीरे उनका अस्तित्व भी समाप्त हो गया ।
नाट्यशास्त्र के अध्ययन से ज्ञात होता है कि इसके पूर्व नाट्यशास्त्र एवं काव्य या अलंकार शास्त्र दो अलग – अलग विधायें थी। परन्तु दोनों में रसादि विषयक समानता के कारण भरतमुनि ने इनका समन्वय किया तथा काव्यों में श्रव्य – काव्य की प्रधानता के कारण अपने ग्रन्थ को नाट्यशास्त्र नाम से अभिहित किया।
इसमें नाट्य एवं काव्य के विविध विषयों का अत्यन्त सूक्ष्म विवेचन है। इसमें 36 अध्याय हैं। नाट्यशास्त्र में काव्य के विविध विषयों का सूक्ष्म विवेचन के बाद भी काव्यशास्त्रीय चिन्तन का प्रवाह नहीं रुका।
भामह, दण्डी, उद्भट, वामन, रुद्रट, आनन्दवर्धन, अभिनवगुप्त, मम्मट, विश्वनाथ आदि आचार्यों ने अपनी लेखनी से इस प्रवाह को समृद्ध किया। काव्यशास्त्र के कुछ प्रसिद्ध आचार्य एवं उनके ग्रन्थः :-
- भरतमुनि – नाट्यशास्त्र
- भामह – काव्यालंकार
- दण्डी – काव्यादर्श
- वामन – काव्यालंकारसूत्र
- आनन्दवर्धन – ध्वन्यालोक
- अभिनव गुप्त – नाट्यशास्त्र पर अभिनवभारती एवं ध्वन्यालोक पर लोचन टीका
- राजशेखर – काव्यमीमांसा
- धनञ्जय – दशरूपक
- कुन्तक – वक्रोक्तिजीवित
- जगन्नाथ – रसगंगाधर
- विश्वनाथ – साहित्यदर्पण
- जयदेव – चन्द्रालोक
- हेमचन्द्र – काव्यमीमांसा
- मम्मट – काव्यप्रकाश
- भोज – सरस्वतीकण्ठाभरण
इन प्रसिद्ध ग्रन्थों के अतिरिक्त आचार्यों ने अनेक टीका, वाद तथा प्रकरण ग्रन्थों का प्रणयन किया। इन सबका काव्यशास्त्र के विकास में महत्वपूर्ण स्थान रहा है।
इस प्रकार काव्यशास्त्र के विकास की यात्रा वैदिक काल से प्रारम्भ होकर भरतमुनि द्वारा सुदृढ़ रूप से व्यवस्थित हुआ तथा भामह, दण्डी, आनन्दवर्धन, वामन, कुन्तक, क्षेमेन्द्र जैसे आचार्यों के द्वारा इसके विविध आयामों का उन्मेष किया गया।
मम्मट, धनजय तथा विश्वनाथ आदि ने इसको पुनर्व्यवस्थित किया। आधुनिक चिन्तक प्रो. रेवाप्रसाद द्विवेदी, प्रो. राधावल्लभ त्रिपाठी, प्रो. राजेन्द्र मिश्र जैसे आचार्य अपनी रचनाओं से इसके प्रवाह को अक्षुण्ण बनाए हुए है।